Thursday, December 11, 2008

ए मेरी पलकों के तारो, सन सन करती पवन चले तो हम लेंगे दिल थाम

सूरज उभरा चन्दा डूबा, लौट आई फिर शाम,
शाम हुई फिर याद आया, इक भूला बिसरा नाम

कुछ भी लिख पाने की ताब नहीं फ़िलहाल. ज़रा देखिये उस्ताद मेहदी हसन ख़ान साहब क्या गा रहे हैं:

Friday, December 5, 2008

मेहंदी हसन - ना किसी की आँख का नूर हूँ

इन दिनों मन कई कारणों से बुझा बुझा सा रहा है सो कई बार अपने पीसी के सामने आकर बैठा भी लेकिन कुछ लिखने को जी नहीं चाहा;इसी बीच मुंबई के घटनाक्रम से दिल और घबरा सा गया है.हालाँकि सिर्फ़ और सिर्फ़ संगीत ही एक आसरा बचा रहा जिसने दिल को तसल्ली बख्शी है . एक ग़ज़ल मेहंदी हसन साहब की सुन रहा हूँ सो मन किया चलो इसी बहाने आपसे दुआ-सलाम हो जाए. बहादुरशाह ज़फ़र की ये रचना कितने जुदा जुदा रंगों में गाई गई है और हर दफ़ा मन को सुक़ून देती है. ज़फ़र का अंदाज़े बयाँ इतने बरसों बाद भी प्रासंगिक लगता है और यही किसी शायर की बड़ी क़ामयाबी है. चलिये साहब ज़्यादा कुछ लिखने की हिम्मत तो नहीं बन रही ..ग़ज़ल सुनें; एक नई लयकारी में इसे शहंशाह ए ग़ज़ल मेहंदी हसन साहब ने अपनी लर्ज़िश भरी आवाज़ में सजाया है.

Sunday, November 9, 2008

अपना साया भी हमसे जुदा हो गया


उस्ताद मेहंदी हसन साहब की आवाज़ में ये नग़मा रेडियो के सुनहरी दौर की याद ताज़ा कर देता है. ये भी याद दिलाता है कि धुनें किस क़दर आसान हुआ करती थी; आर्केस्ट्रा के साज़ कितने सुरीले होते थे. इलेक्ट्रॉनिक बाजों का नामोनिशान नहीं था. सारंगी,वॉयलिन,बाँसुरी,सितार और तबले में पूरा समाँ बंध जाता था.हर टेक-रीटेक को वैसा ही दोहराना होता था जैसा म्युज़िक डायरेक्टर एक बार कम्पोज़ कर देता था.सुगम संगीत विधा की पहली ज़रूरत यानी शब्द की सफ़ाई को सबसे ज़्यादा तवज्जो दी जाती थी. लफ़्ज़ को बरतना उस्ताद जी का ख़ास हुनर रहा है. जब शब्द के मानी दिल में उतरने लगे तो उस्ताद अपने अनमोल स्वर से भावों को ऐसा उकेर देते हैं कि शायर की बात सुनने वाले के कलेजे में उतर आती है.मुख़्तसर सी ये रचना इस बात की तसदीक कर रही है.

Monday, October 27, 2008

दीवाने आदमी हैं ....


सभी दोस्तों को दीपावली की मंगलकामनाएं .....

हर जगह धूम है दिवाली की .... आप के posts पढ़ कर मौसम और मौक़े का ख़ुमार तेज़तर हो रहा है ...

लिख पाना अक्सर भारी पड़ता है मुझ पर .... लेकिन जो अपने हक़ में है वो तो कर ही रहा हूँ .....

एक शेर याद आता है :

"ज़ब्त करना सख्त मुश्किल है तड़पना सह्ल है
अपने बस का काम कर लेता हूँ आसाँ जानकर"


सह्ल = आसान


तो अपने बस का काम कर रहा हूँ ... इसी में मस्त हूँ ..... आप भी सुनिए मल्लिका पुखराज की आवाज़ में एक ग़ज़ल ............





ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं
तुझ से लिपट पड़ेंगे, दीवाने आदमी हैं

गै़रों की दोस्ती पर क्यों ऐतबार कीजे
ये दुश्मनी करेंगे, बेगाने आदमी हैं

तुम ने हमारे दिल में घर कर लिया तो क्या है
आबाद करते... आख़िर वीराने आदमी हैं

क्या चोर हैं जो हम को दरबाँ तुम्हारा टोके
कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं

Wednesday, October 22, 2008

नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही

"फ़ैज़" साहब की ग़ज़ल हो और आबिदा परवीन की आवाज़, तो माहौल कुछ अलग-सा बन जाता है. पेश है एक ग़ज़ल ...........



आबिदा परवीन - फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"



"नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही"






नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही


न तन में खून फ़राहम है न अश्क आंखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही


किसी तरह तो जमे बज़्म मैक़दे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही


गर इंतज़ार कठिन है तो जब तक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ्तगू ही सही


दयार-ए-गै़र में मरहम अगर नहीं कोई
तो "फैज़" ज़िक्र-ए-वतन अपने रूबरू ही सही

Friday, October 17, 2008

ये ज़िन्दगी तो मुहब्बत की ज़िन्दगी न हुई


सुख़नसाज़ पर पिछले दिनों एक बेहतरीन वीडियो के ज़रिये उस्ताद मेहंदी हसन साहब से जिस तरह की मुलाक़ात हुई वह रोंगटे कर देने वाली थी. क्या बला की सी सादगी और इतनी सिनीयरटी होने के बावजूद एक तालिब ए इल्म बने रहने का अंदाज़...हाय ! लगता है अल्लाताला ने इन महान फ़नक़ारों की घड़ावन अपने ख़ास हाथों से की है.
(वरना थोड़ा सा रेंक लेने वाले भांड/मिरासी भी मुझसे कहते है भैया एनाउंसमेंट करते वकत हमारे नाम के आगे जरा उस्ताद लगा दीजियेगा) शिद्दत से ढूँढ रहा था एक ऐसी ग़ज़ल जो तसल्ली और सुक़ून के मेयार पर ठहर सी जाती हो. क्या है कि उस्ताद जी को सुनने बैठो तो एक बड़ा ख़तरा सामने रहता है और वह यह कि उन्हें सुन लेने के बाद रूह ज़्यादा बैचैन हो जाती है कि अब सुनें तो क्या सुनें...? मीत भाई,शायदा आपा,पारूल दी,सिध्दू दा और एस.बी सिंह साहब कुछ मशवरा करें क्या किया जाए.न सुनें तो चैन नहीं ...सुन लेने के बाद भी चैन नहीं...

हाँ एक बात बहुत दिनों से कहने को जी बेक़रार था. आज कह ही देता हूँ.उस्ताद मेहंदी हसन को सुनने के लिये क्या कीजे कि शायरी का जादू और आवाज़ का कमाल पूरा का पूरा ज़हन में उतर जाए...बहुत सोचा था कभी और जवाब ये मिला था कि सबसे पहले तो अपने आप को बहुत बड़ा कानसेन भी न समझें.समझें कि उनकी क्लास में आज ही भर्ती हुए हैं और ग़ज़ल दर ग़ज़ल दिल नाम की चीज़ को एकदम ख़ाली कर लें (आप कहेंगे ये तो रामदेव बाबा की तरह कपालभाती सिखा रहा है) आप देखेंगे कि जो स्टेटस ध्यान के दौरान बनता है वह मेहंदी हसन साहब बना देते हैं.दुनिया जाए भाड़ में;पूरे आलम में बस और बस मेहंदी हसन तारी होते हैं.यक़ीन न आए तो ये ग़ज़ल सुन लीजिये वरना बंदा जूते खाने को तैयार है.


Monday, October 13, 2008

क्या ख्वाब था वो जिसकी ताबीर नज़र आई - आबिदा

कभी कभी देर रात या सुबह सुबह जब ये आवाज़ सुनता हूँ तो किसी और जहाँ में चला जाता हूँ ..... और ये ग़ज़ल भी कुछ ऐसी ही है ...

आप भी सुनें आबिदा परवीन की आवाज़ में ये ग़ज़ल :



Boomp3.com



क्या ख्वाब था वो जिसकी ताबीर नज़र आई
कुछ हाथ नज़र आए, ज़ंजीर नज़र आई


उस शोख के लहजे में तासीर ही ऎसी थी
जो बात कही उस ने, तासीर नज़र आई


वो ऎसी हक़ीक़त है, जिसने भी उसे सोचा
अपने ही ख़यालों की तस्वीर नज़र आई


ता-हद्द-ए-नज़र मेरे आंसू भी लहू भी था
ता-हद्द-ए-नज़र तेरी जागीर नज़र आई


शायद वो "सफ़ी" उस का एजाज़-ए-नज़र होगा
पानी जो कहीं देखा, शमशीर नज़र आई

Friday, October 10, 2008

कैसे तैयार हुई "कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की"

मेहदी हसन की आवाज़ में राग दरबारी में गाई गई परवीन शाकिर की मशहूर ग़ज़ल "कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की" आप पहले भी सुन चुके हैं. आज सुनिये उस्ताद ख़ान साहेब मेहदी हसन से इस ग़ज़ल की अद्भुत रचना-प्रक्रिया के बारे में.

सात-आठ मिनट के इस वीडियो में उस्ताद आपको ग़ज़ल-गायन की विशिष्ट बारीकियों से रू-ब-रू कराते चलते हैं. शायरी को इज़्ज़त बख़्शने का पहला क़ायदा भी इसे समझा जा सकता है.

एक गुज़ारिश यह है कि पहले पूरा वीडियो अपलोड हो जाने दें. तभी आप इस बातचीत का मज़ा ले पाएंगे

Thursday, October 9, 2008

आमी चीनी गो चीनी - "गुरदेव"


एक ज़माने से कलकत्ते में रहते रहते कुछ बांग्ला गीत दिल-ओ-दिमाग़ पे छा गए हैं ..... कहते हैं संगीत को किसी भाषा विशेष से कोई ख़ास मतलब नहीं ...... संगीत भाषाओं की ज़द से परे अपना असर सब के दिलों पर एक सा करता है.

आज सुनिए गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर की ये Composition - आवाज़ है शकुन्तला बरुआ की ...



Boomp3.com

Monday, October 6, 2008

सुमना रॉय की खनकती आवाज़ में ग़ालिब का क़लाम !

भोपाल में रहती थीं सुमना रॉय.आकाशवाणी से कुछ नायाब रचनाएँ रेकॉर्ड करने के बाद अनायास करियर में एक बेहतरीन मोड़ आया और रोशन भारती के साथ सुमना दी को टाइम्स म्युज़िक बैनर तले बाबा ग़ालिब और दाग़ की ग़ज़लों को रेकॉर्ड करने का मौक़ा मिला. ज़िन्दगी में आई ये बहार वाक़ई सुमना दी की ज़िन्दगी में एक ख़ूबसूरत मोड़ ले आई थी. टाइम्स जैसा प्रतिष्टित बैनर,अख़बारों और टीवी चैनल्स पर चर्चे.हाँ इन्हीं दिनों सुमना दी रंगकर्म की ओर भी लौटीं थी. सब कुछ ठीक चल पड़ा था.
मंच इतनी जीवंत कि जैसे ग़ज़ल नहीं गा रहीं हैं आपसे बतिया रहीं हो.बेतक़ल्लुफ़ और आत्म-विश्वास से भरी पूरी.

कई कार्यक्रम एंकर किये उनके और हमेशा एक छोटे भाई सा स्नेह देतीं रहीं वे मुझे. मेरी तमाम मसरूफ़ियात के बावजूद मुझे जब माइक्रोफ़ोन पर देखतीं तो कहतीं कैसे कर लेते हो भाई इतना सब.हाँ ये बताना भूल ही गया कि सुमना रॉय को मलिका ऐ ग़ज़ल बेगम अख़्तर से तालीम और सोहबत मिली थी. जब भी बेगम अख़्तर का नाम उनकी ज़ुबान आता हाथ अपने आप कान पर चला जाता , गोया अपनी उस्ताद का नाम मुँह में आ गया है;मुआफ़ कीजियेगा.

एक दिन अख़बार देखता हूँ तो ये मनहूस ख़बर पढ़ने को मिलती है
ख्यात गायिका सुमना रॉय ने आत्महत्या कर ली.


खनकती आवाज़ और लाजवाब अंदाज़ की बेजोड़ गुलूकारा का दु:खद अंत
... हुए नामवर बेनिशाँ कैसे कैसे !.


Friday, October 3, 2008

सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को

जनाब अहसान दानिश की ग़ज़ल पेश है ख़ान साहब की अतुलनीय आवाज़ में.:



न सियो होंट, न ख़्वाबों में सदा दो हम को
मस्लेहत का ये तकाज़ा है भुला दो हम को

हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब
हां अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को

शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को

मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
बैठ जाएंगे जहां चाहे बिठा दो हम को

Thursday, October 2, 2008

एक दिया है जो अंधेरे में जला रख्खा है

जब उस्ताद गा रहे हैं तो शब्द का वज़न क़ायम न रहे ऐसा मुमकिन ही नहीं.मेहंदी हसन साहब ने ज़िन्दगी के पचास से ज़्यादा बरस ग़ज़ल को सँवारते में झोंक दिये .उन्होंने महज़ ग़ज़ल गाई ही नहीं एक माली की तरह मौसीक़ी की परवरिश की. वे शास्त्रीय संगीत के इतने बड़े जानकार हैं कि राग-रागिनियाँ जिनकी बाँदी बनकर उनके गले की ग़ुलामी के लिये हर चंद तैयार रहती हैं लेकिन फ़िर भी वे ग़ज़ल गाते वक़्त जिस तरह से शायर की बात को बरतते हैं वह लासानी काम है.यही वजह है कि ग़ज़ल का यह बेजोड़ गुलूकार अपनी ज़िन्दगी में ही एक अज़ीम शाहकार बन गया है.

आइये मुलाहिज़ा फ़रमाइये एक बेमिसाल बंदिश जिसमें मेहंदी हसन घराने के वरक़ जगमगा उट्ठे हैं.


Tuesday, September 30, 2008

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है


उस्ताद मेहंदी हसन को क्या कहेंगे आप ? एक गुलूकार ? बस ! मैं कहना चाहूँगा ग़ज़ल का एक ऐसा मेयार जहाँ पहुँचना नामुमकिन ही है. वे ग़ज़ल गायकी का एक युग है.गरज़ कि उनके बाद सब पीछे छूटा सा लगता है. शायरी,मूसीक़ी,गायकी. सब प्लास्टिक के फूल लगते हैं ....सजावटी से. न ख़ालिस महक , न उजले रंग.कुछ मित्र कहते हैं मैं बात को अतिरंजित करता हूँ...तो ठीक है बता दीजिये उसी दौर का ऐसा बेजोड़ गायक जो मेहंदी हसन साहब के पाये का हो. अब इसी ग़ज़ल को लीजिये...कितने गुलूकारों ने आज़माया है इसे लेकिन ख़ाँ साहब के गाये का असर है कि मिटने का नाम ही नहीं लेता.तक़रीबन तीन दिन ख़ाकसार को मेहंदी हसन साहब की ख़िदमत का मौक़ा मिला था. हाय ! क्या लम्हे थे वो. कैसी बेसाख़्ता सादगी, मर जाने को जी चाहे.राजस्थानी में बतियाते रहे थे हम. गाने के बारे में,रियाज़ के मामले में,शायरी और शायरों के मामले में.अहमद फ़राज़ और फ़ैज़ को कितना चाहते हैं ख़ाँ साहब क्या बताऊँ.कहने लगे इन दोनो शोअरा की ग़ज़ल पढ़ते ही ऐसा लगता है कि झट इन्हें किसी मुकम्मिल धुन में बांध दूँ.

बातचीत का अंदाज़ वैसा ही सॉफ़्ट जो गाने में सुनाई देता है.क्या कहिये इस अंदाज़ को कि गाना भी बनावटी नहीं और बोलना भी .चिकन का कुर्ता पहना हुआ है , होंठ पान से लाल हुए जाते हैं,उंगलियों में सिगरेट दबी हुई है और बेतकल्लुफ़ी से होटल के कमरे में बिस्तर पर लेटे हैं.पन्द्रह से ज़्यादा बरस का समय हो गया ; आज जब याद किया जाता हूँ तो लगता है उनसे अभी भी उसी होटल में रूबरू हूँ.यही होता है अज़ीम शख़्सीयतों का जादू. कौन सी ग़ज़ल अच्छी नहीं लगती आपको ?तो बोले जिसमें सब कुछ उघाड़ कर कह दिया हो.बेटे ग़ज़ल की सबसे बड़ी ताक़त है उसका सस्पैंस.जब एक मिसरा पढ़ दिया तो दूसरा क्या होगा ये जानने के लिये दिल मचल मचल जाए सामइन का , समझ लो हिट हो गई वह ग़ज़ल .कैसे तय करते हैं कि फ़लाँ ग़ज़ल लेना है या कैसे चुनते हैं आप कि ये ग़ज़ल आपके गले के माफ़िक रहेगी ...तो बोले एक ग़ज़ल को कम से कम चार पाँच रागों में बांध देखता हूँ....सब जगह माकूल बैठी तो लगता है ये है मेरे काम की. और दूसरी बात ये कि अंदाज़ेबयाँ जुदा होना ज़रूरी है शायर का. कितना अलग एंगल ले पाता है कोई शायर अपनी बात में वह मेरे लिये बहुत अहमियत रखता है.शायर कितना नामचीन है ये ज़रूरी नहीं मेरे लिये...अल्फ़ाज़ों की सादगी और उम्दा कहन ज़रूरी है.

वादा किया था अशोक भाई से कभी कि यादों में क़ैद मेहंदी हसन साहब से उस मुलाक़ात को याद कर कर के लिखता जाऊंगा....न जाने क्यूं पत्ता पत्ता बूटा बूटा सुनते और आपको सुनाने के लिये मन बनाते बनाते लिखने का मन बन गया.आइये अब ग़ज़ल सुनते हैं क्योंकि मेरी बात तो ख़ाँ साहब के गाने जितनी सुरीली नहीं न!




पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

चारागरी बीमारि-ए-दिल की रस्मे-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वरना दिलबर-ए-नादां भी इस दर्द का चारा जाने है

मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत, एक से वाक़िफ़ इनमें नहीं
और तो सब कुछ तंज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है

-मीर तक़ी 'मीर'

चारागरी: चिकित्सा
रस्मे-ए-शहर-ए-हुस्न: सौन्दर्य के नगर की परम्परा
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत: प्यार, मोहब्बत, मौज मज़े आदि
तंज़-ओ-कनाया: व्यंग्य और पहेली
रम्ज़-ओ-इशारा: रहस्य और संकेत

Monday, September 29, 2008

दिल की बात कही नहीं जाती ...: "मीर" ... "बेग़म अख्तर"

आज एक बार फिर "बेग़म अख्तर" ....

और "मीर" ............

क्या करूं .. न अख्तरी बाई का कोई जवाब है न मीर का ... चचा ग़ालिब ही जब कह गए :

"रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था"







दिल की बात कही नहीं जाती चुप के रहना ठाना है
हाल अगर है ऐसा ही तो जी से जाना जाना है


सुर्ख कभू है आँसू हो के ज़र्द कभू है मुंह मेरा
क्या क्या रंग मुहब्बत के हैं ये भी एक ज़माना है


फुर्सत है याँ कम रहने की बात नहीं कुछ कहने की
आँखें खोल के कान जो खोलो, बज्म-ए-जहाँ अफ़साना है


तेग़ तले ही उस के क्यों ना गर्दन डाल के जा बैठें
सर तो आख़िरकार हमें भी ख़ाक की ओर झुकाना है

Sunday, September 28, 2008

रातें थीं चाँदनी जोबन पे थी बहार....हाजी वली मोहम्मद


कुछ आवाज़ों की घड़ावन को सुनकर अल्लाताला को शुक्रिया अदा करने को जी चाहता है.
अब ज़रा ये आवाज़ सुनिये ,कैसा खरज भरा स्वर है और कितनी सादा कहन.
सुख़नसाज़ पर आज तशरीफ़ लाए हैं हबीब वली मोहम्मद साहब.इस नज़्म के ज़रिये
कैसी सुरीली तरन्नुम छिड़ी है आज सुख़नसाज़ पर ज़रा आप भी मज़ा लीजिये न.
कहना सिर्फ़ इतना सा है कि हबीब वली मोहम्मद साहब सादा गायकी का दूसरा
नाम है.उनके घराने में सुरों के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ नहीं है.लफ़्ज़ों की सफ़ाई
और कम्पोज़िशन के वज़न पर क़ायम रहना तो कोई इस गुलूकार से सीखे.

अशोक भाई क्या आप सहमत होंगे कि जब शायरी और मूसीक़ी का जादू
सर चढ़ कर बोल रहा हो तो अपनी वाचालता विराम दे देना चाहिये..ग़रज़ कि
जब गायकी बोल रही हो तो तमाम दीगर तब्सिरे बेसुरे मालूम होते है;
क्या कहते हैं आप ?


Saturday, September 27, 2008

कौन कहता है तुझे मैं ने भुला रखा है .........

"अमीर" अब हिचकियाँ आने लगीं हैं
कहीं मैं याद फ़रमाया गया हूँ ......"



दोस्तों कोई भूमिका नहीं ... सिवा इस के कि बहुत देर से ये आवाज़ सुन रहा हूँ और किसी और जहान में हूँ.

कुछ तो इस आवाज़ का नशा है ..... कुछ इस ग़ज़ल का कमाल ........ और कुछ मेरी फ़ितरत !

पता नहीं गायकी में क्या ख़ूबी है .. लेकिन असर इस से भी ज़्यादा क्या होता होगा ?







कौन कहता है तुझे मैं ने भुला रखा है
तेरी यादों को कलेजे से लगा रखा है


लब पे आहें भी नहीं आँख में आँसू भी नहीं
दिल में हर दाग़ मुहब्बत का छुपा रखा है


तूने जो दिल के अंधेरे में जलाया था कभी
वो दिया आज भी सीने में जला रखा है


देख जा आ के महकते हुए ज़ख्मों को बहार
मैं ने अब तक तेरे गुलशन को सजा रखा है

Thursday, September 25, 2008

क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार

भारत के आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह 'ज़फ़र' की यह ग़ज़ल मेहदी हसन साहब की चुनिन्दा ग़ज़लों के हर प्रीमियम संस्करण की शान बनती रही है. आलोचकगण कई बार इसमें राजनैतिक नैराश्य और आसन्न पराजय से त्रस्त ज़फ़र की मनःस्थिति तक पहुंचने का प्रयास करते रहे हैं.

यह अकारण नहीं था क्योंकि कुछ ही सालों बाद अंग्रेज़ों ने ज़फ़र को वतनबदर करते हुए रंगून की जेल में भेज दिया. कूचः-ए-यार में दो गज़ ज़मीं न मिल सकने को अभिशप्त रहे इस बादशाह-शायर की कविता को उसकी समग्रता में समझने की बेहद ईमानदार कोशिश आप को मेहदी हसन साहब की आवाज़ में सुनने को मिलती है. इस बात को सुख़नसाज़ पर बार-बार अंडरलाइन किया गया है कि इस उस्ताद गायक के भीतर कविता और शब्दों के प्रति जो सम्मान है, वह अभूतपूर्व तो है ही, साहित्य-संगीत के पाठकों के लिए बहुमूल्य भी है.




बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी

उन की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
के तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी

चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी

क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तेरी हूर-ए-शमाइल कभी ऐसी तो न थी

Tuesday, September 23, 2008

किसी ने पूछा कि बात क्या है, तो दुख हंसी में बदल गए हैं

उस्ताद ख़ान साहेब मेहदी हसन के स्वर में सुनें एक और फ़िल्मी गीत:



कहा जो मरने को मर गए हम, कहा जो जीने को जी उठे हम
अब और क्या चाहता है ज़ालिम, तेरे इशारों पर चल रहे हम

किसी से कुछ भी कहा नहीं है, न जाने कैसे ख़बर हुई है
जो दर्द सीने में पल रहे थे वो गीत बन के मचल रहे हैं

न आये लब पे तेरी कहानी, तबाह कर दी ये ज़िन्दगानी
किसी ने पूछा कि बात क्या है, तो दुख हंसी में बदल गए हैं

ये रात जाने कटेगी कैसे, ये प्यास जाने बुझेगी कैसे
कहीं पे रोशन वफ़ा की शम्में, कहीं पे परवाने जल रहे हैं

Monday, September 22, 2008

हमसे अच्छे पवन चकोरे, जो तेरे बालों से खेलें

मेहदी हसन साहब का एक ये मूड भी देखिये. इस रंग के गीत भी खां साहब के यहां इफ़रात में पाये जाते हैं.

इस गीत को पेश करता हुआ मैं अपनी एक गुज़ारिश भी आप के सामने रखता हूं - अगर आप बहुत कलावादी या शुद्धतावादी हैं तो कृपा करें और इस गीत को न सुनें, लेकिन मेहदी हसन को मोहब्बत करते हैं तो पांच मिनट ज़रूर दें. सुनिये "ओ मेरे सांवरे सलोने मेहबूबा"




*आज सुख़नसाज़ के वरिष्ठतम साजिन्दे संजय पटेल का जन्मदिन भी है. यह मीठा गीत में उन्हीं की नज़्र करता हूं.

Sunday, September 21, 2008

दुनियाँ के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद .... : "जिगर"

"जिगर" मुरादाबादी की एक ग़ज़ल .......

अभी अभी कहीं से वापस घर आया और ये सुना .... लगा कि पोस्ट करने में कोई बुराई नहीं ... ग़ज़ल मुझे बहुत पसंद है ............ और आवाज़ के बारे में कुछ कहना ज़रा अजीब सा लगता है मुझे ... जो संगीत के जानकार हैं वो ही कहा करें ......... मैं तो बस सुन के जीता हूँ ........

बस एक बात कहनी है ... ग़ज़ल का एक शेर आख़िर में पेश है जो इस version में नहीं है ..


"जिगर" मुरादाबादी
बेग़म अख्तर







दुनियाँ के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद


मैं शिक़वा ब लब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद कि मेरे भूलने वाले ने किया याद


जब कोई हसीं होता है सरगर्म-ए-नवाज़िश
उस वक्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद


मुद्दत हुई एक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तेरे दिल के धड़कने की सदा याद


मैं तर्क़-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यों आ गई ऐसे में तेरी लग्जिश-ए-पा याद



और ये शेर :


क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद

Friday, September 19, 2008

गायकी की पूर्णता क्या होती है ज़रा मेहंदी हसन साहब से सुनिये


अशोक भाई ने सुख़नसाज़ की जाजम क्या जमा दी है , जी चाहता है हर दिन मेहंदी ह्सन साहब की तारीफ़ में कसीदे गढ़ते रहें.जनाब क्या करें ख़ाँ साहब की गायकी है ही कुछ ऐसी कि जो कुछ अभी तक गा दिया गया है वह वह पुराना पड़ जाता है.जो जो सुन रखा है,याद से ओझल हो जाता है.आज बहुत थोड़े में अपनी बात ख़त्म कर रहा हूँ और आपको मदू कर रहा हूँ कि आइये हुज़ूर आवाज़ के इस जश्न में शामिल हो जाइये.
यहाँ बस इतना साफ़ कर देना चाहता हूँ कि उस्ताद जी ने यहाँ ग़ज़ल गायकी का रंग तो उड़ेला ही है लेकिन बार बार वे ये भी बताते जा रहे हैं कि क्लासिकल मौसीक़ी का आसरा क्या होता है. गायकी में पूर्णता के पर्याय बन गए हैं यहाँ मेहंदी हसन साहब.एक बात और अर्ज़ कर दूँ ,शायरी के साथ मौसीक़ी के जो उजले वर्क़ यहाँ मौजूद हैं , कुछ उनका ज़्यादा लुत्फ़ लेने की कोशिश कीजै......सौदा बुरा नहीं है


Thursday, September 18, 2008

तुझको मंज़िल पे पहुंचने का है दावा हमदम, मुझको अन्जाम नज़र आता है आग़ाज़ अभी

उस्ताद मेहदी हसन ख़ां साहब की एक बहुत आलीशान, बहुत अलहदा सी ग़ज़ल प्रस्तुत है:



तुझको आते ही नहीं छुपने के अन्दाज़ अभी
मेरे सीने में है लरज़ां तेरी आवाज़ अभी

उसने देखा भी नहीं दर्द का आग़ाज़ अभी
इश्क़ को अपनी तमन्ना पे है नाज़ अभी

तुझको मंज़िल पे पहुंचने का है दावा हमदम
मुझको अन्जाम नज़र आता है आग़ाज़ अभी

किस क़दर गो़श बर आवाज़ है ख़ामोशि-ए-शब
कोई ला ला के है फ़रियाद का दरबाज़ अभी

मेरे चेहरे की हंसी, रंग शिकस्ता मेरा
तेरे अश्कों में तबस्सुम का है अन्दाज़ अभी

Sunday, September 14, 2008

बेगम अख़्तर सुना रहीं हैं ये गुजराती ग़ज़ल


सुख़नसाज़ पर पहले एक बार मोहम्मद रफ़ी साहब की गुजराती ग़ज़ल लगाई थी.आज हाथ आ गई अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी यानी बेगम अख़्तर की ये गुजराती ग़ज़ल. मतला मुलाहिज़ा फ़रमाएँ.

में तजी तारी तमन्ना तेनो आ अंजाम छे
के हवे साचेज लागे छे के तारू काम छे



अब मज़ा ये देखिये की पूरी ग़ज़ल सुनते कहीं लगता नहीं कि भाषा कहीं आड़े आ रही है. हमारे मीत भाई जब तब कहते हैं कि मुझे राग-रागिनी समझ नहीं आ रही फ़िर भी बस सुन रहा हूँ तो बात बिलकुछ ठीक जान पड़ती है. सुर के बावरे कहाँ भाषा और रागदारी के प्रपंच में पड़ते हैं. बस एक अहसास है मौसिक़ी का उसे पिये जाइये. ये सुनना भी एक तरह की मस्ती है जैसे बेगम मक्ते में कहती है कि मेरी इस इस मजबूर मस्ती का नशा उतर गया है और भी कह रहे हैं की मुझे आराम आ गया है.
ग़ौर फ़रमाएँ खुदा और जिन्दगी कह गईं हैं बेगम.तो क्या तलफ़्फ़ुज़ नहीं जानतीं वे ?
नहीं हुज़ूर वे लोकल डायलेक्ट (बोली)को निभाने का हुनर रखतीं है सो यहाँ जैसा गुजराती में बोला जाएगा वैसा ही गाया है बेगम अख़्तर ने.

बेगम अख़्तर यानी सुरीली दुनिया की परी.जिनकी आवाज़ में आकर सारी शायरी,दादरे,ठुमरियाँ एक अजीब क़िस्म की पैरहन ओढ़ लेती है. कैसे कमाल के काम कर गईं हैं ये महान रूहें.सुनो रे बेसुरेपन को बेचने वालों...सुनो क्या गा गईं हैं अख़्तरी बाई.



इस प्लेयर पर भी बज रही है ये ग़ज़ल:
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Saturday, September 13, 2008

बेसबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना








आज पेश है एक ग़ज़ल ग़ालिब की..... आवाज़ "ग़ज़लों की मलिका' बेगम अख्तर की :


ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना


ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रकीब आख़िर था जो राजदां अपना

मय वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ए-गै़र में यारब !
आज ही हुआ मंज़ूर, उन को इम्तेहाँ अपना

मंज़र एक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से उधर होता, काश कि मकाँ अपना

हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना



Monday, September 8, 2008

तुम्हारे बाद किसी रात की सहर न हुई

मेहदी हसन साहब की एक प्रसिद्ध फ़िल्मी कम्पोज़ीशन प्रस्तुत है:



ख़ुदा करे कि मोहब्बत में ये मक़ाम आये
किसी का नाम लूं लब पे तुम्हारा नाम आए

कुछ इस तरह से जिए ज़िन्दगी बसर न हुई
तुम्हारे बाद किसी रात की सहर न हुई

सहर नज़र से मिले, ज़ुल्फ़ ले के शाम आए
किसी का नाम लूं लब पे तुम्हारा नाम आए

ख़ुद अपने घर में वो मेहमान बन के आए हैं
सितम तो देखिए अनजान बन के आए हैं

हमारे दिल की तड़प आज कुछ तो काम आए
किसी का नाम लूं लब पे तुम्हारा नाम आए

वही है साज़ वही गीत वही मंज़र
हरेक चीज़ वही है नहीं हो तुम वो मगर

उसी तरह से निगाहें उठें सलाम आए
किसी का नाम लूं लब पे तुम्हारा नाम आए

Saturday, September 6, 2008

तरसत जियरा हमार नैहर में ....

दोस्तो मुझे बस एक बात मालूम है इस पोस्ट के बारे में : ये आवाज़ शोभा गुर्टू की है.

इस लिए कुछ कहूँगा नहीं, मैं इस क़ाबिल ही नहीं. मैं पहले ही अर्ज़ कर चुका हूँ कि संगीत का इल्म मुझे रत्ती भर नहीं. बस नशा है .... इस के बिना जिया नहीं जाता ....

लेकिन क्या है ये जो छोड़ता नहीं मुझे ....




Tuesday, September 2, 2008

रफ़ी साहब बता रहे है-कितनी राहत है दिल टूट जाने के बाद


मोहम्मद रफ़ी फ़िल्मी गीतों के अग्रणी गायक न होते तो क्या होते.शर्तिया कह सकता हूँ किसी घराने के बड़े उस्ताद होते या बेगम अख़्तर,तलत मेहमूद,मेहंदी हसन और जगजीतसिंह की बलन के ग़ज़ल गायक होते.भरोसा न हो तो मुलाहिज़ा फ़रमाइये ये ग़ज़ल .क्या तो सुरों की परवाज़ है और क्या सार-सम्हाल की है शायरी की.रफ़ी साहब ने इन रचनाओं को तब प्रायवेट एलबम्स की शक़्ल में रेकॉर्ड किया था जब किशोरकुमार नाम का सुनामी राजेश खन्ना नाम के सुपर स्टार को गढ़ रहा था.रफ़ी साहब ने इस समय का बहुत रचनात्मक उपयोग किया. स्टेज शोज़ किये,भजन रेकॉर्ड किये और रेकॉर्ड की चंद बेहतरीन ग़ज़लें.हम कानसेन उपकृत हुए क्योंकि दिल को सुकून देने वाली आवाज़ हमारे कलेक्शन्स को सुरीला बनाती रही.ऐसी कम्पोज़िशन्स को गा गा कर न जाने कितने गुलूकारों ने अपनी रोज़ी-रोटी कमाई है.अहसान आपका मोहम्मद रफ़ी साहब आपका हम सब पर.और हाँ इस ग़ज़ल को सुनते हुए ताज अहमद ख़ान साहब के कम्पोज़िशन की भी दाद दीजिये,किस ख़ूबसूरती से उन्होंने सितार और सारंगी का इस्तेमाल किया है...हर शेर पर वाह वाह कीजिये हुज़ूर..रफ़ी साहब जो गा रहे हैं.

Monday, September 1, 2008

एक आवारा सी आवाज़

इस आवाज़ का असर मुझ पर तो कुछ अजब सा होता है ..... आप पर ?

"शब की तन्हाई में इक बार सुन के देखा था
उस की आवाज़ का असर वो था, कि अब तक है..."



Saturday, August 30, 2008

अल्लाह करे के तुम कभी ऐसा न कर सको

ग़ज़ल गायकी की जो जागीरदारी मोहतरमा फ़रीदा ख़ानम को मिली है वह शीरीं भी है और पुरकशिश भी. वे जब गा रही हों तो दिल-दिमाग़ मे एक ऐसी ख़ूशबू तारी हो जाती है कि लगता है इस ग़ज़ल को रिवाइंड कर कर के सुनिये या निकल पड़िये एक ऐसी यायावरी पर जहाँ आपको कोई पहचानता न हो और फ़रीदा आपा की आवाज़ आपको बार बार हाँट करती रहे. यक़ीन न हो तो ये ग़ज़ल सुनिये...

Tuesday, August 26, 2008

तुम्हें भुलाने में शायद हमें ज़माने लगे-यादों में फ़राज़


शदीद ग़म के और की-बोर्ड पर काँपती उंगलियों से लिखता हूँ कि आलातरीन शायर
अहमद फ़राज़ साहब नहीं रहे. वे अपनी ज़िन्दगी में शायरी का एक ऐसा मरकज़ बन गए थे जहाँ तक पहुँच पाना दीगर लोगों के लिये नामुमकिन सा लगता है. मैंने बार बार लिखा भी है कि रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ , इस एक ग़ज़ल को मैं ग्लोबल ग़ज़ल ही कहता हूँ.फ़राज़ साहब ने मुशायरों में होने वाली राजनीति के चलते स्टेज से हमेशा एक मुसलसल दूरी बनाए रखी. जैसा कि होना चाहिये अदब की दुनिया के अलावा समाज और इंसानियत के हक़ में शायर और अदीब खड़े नज़र आने चाहिये सो फ़राज़ साहब हमेशा कमिटेड रहे. ज़ाहिर है सत्ता से उनकी कभी नहीं बनी.भारत-पाकिस्तान की एकता और तहज़ीब के हवाले से अमन और भाईचारे की ख़िदमत उनकी ज़िन्दगी के उसूलों में शुमार रहा. बिला शक कहा जा सकता है कि फ़राज़ साहब के परिदृश्य पर लोकप्रिय होने के बाद ग़ज़ल को एक नया मेयार मिला. मौसीक़ी की दुनिया ने हमेशा उनकी ग़ज़लों का ख़ैरमक्दम किया और जिस तरह की मुहब्बत और बेक़रारी उनके कलाम के लिये देखी जाती रही वह किसी शायर को नसीब से ही मिलती है.

अहमद फ़राज़ साहब की ही एक ग़ज़ल से इस अज़ीम शायर को सुख़नसाज़ की
भावपूर्ण श्रध्दांजलि..

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

दिल धड़कता नहीं तपकता है
कल जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इस मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे


कोहकन हो कि क़ैस हो कि फ़राज़
सब में इस शख़्स ही मिला है मुझे


(आबला:छाला/तपकना:जब शरीर कि किसी हिस्से में दर्द हो और वो दर्द दिल धड़कने से भी दुखे/कोहकन:फ़रहाद जिसने शीरीं के लिये पहाड़ काटा था)

Saturday, August 23, 2008

एक सुब्ह का आगाज़ इस आवाज़ से भी : बेग़म आबिदा परवीन

फैज़ अहमद "फैज़" ..... बेग़म आबिदा परवीन .........

अब इस से आगे मैं क्या कहूँ ?? ( इस से इलावा कि बात शाम की है.....)

शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ, आई और आ के टल गई


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शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ, आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया, जाँ थी कि फिर संभल गई

बज़्म-ए-ख़याल में तेरे, हुस्न की शम्मा जल गई
दर्द का चाँद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गई

जब तुझे याद कर लिया, सुब्ह महक महक उठी
जब तेरा ग़म जगा लिया, रात मचल मचल गई

दिल से तो हर मुआमिला, कर के चले थे साफ़ हम
कहने में उन के सामने, बात बदल बदल गई

आख़िर-ए-शब के हमसफ़र, "फैज़" न जाने क्या हुए
रह गई किस जगह सबा, सुब्ह किधर निकल गई

Friday, August 22, 2008

इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का

यूनुस भाई ने आज जो सिलसिला चालू किया है, मुझे उम्मीद है सुख़नसाज़ पर अब और भी विविधतापूर्ण संगीत की ख़ूब जगह बनेगी. ५ मई १९६७ को रिलीज़ हुई पाकिस्तानी फ़िल्म 'देवर भाभी' से एक गीत सुनिये आज मेहदी हसन साहब की आवाज़ में. हसन तारिक़ द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में रानी और वहीद मुराद मुख्य भूमिकाओ में थे. फ़ैयाज़ हाशमी के गीतों को इनायत हुसैन ने संगीतबद्ध किया था.



ये लोग पत्थर के दिल हैं जिनके
नुमाइशी रंग में हैं डूबे

ये काग़ज़ी फूल जैसे चेहरे, मज़ाक उड़ाते हैं आदमी का
इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का

इन्हें भला ज़ख़्म की ख़बर क्या कि तीर चलते हुए न देखा
उदास आंखों में आरज़ू का ख़ून जलते हुए न देखा
अंधेरा छाया है दिल के आगे हसीन ग़फ़लत की रोशनी का

ये काग़ज़ी फूल जैसे चेहरे, मज़ाक उड़ाते हैं आदमी
इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का

ये सहल-ए-गुलशन में जब गए हैं, बहार ही लूट ले गए हैं
जहां गए हैं ये दो दिलों का क़रार ही लूट ले गए हैं
ये दिल दुखाना है इनका शेवा, इन्हें है अहसास कब किसी का

ये काग़ज़ी फूल जैसे चेहरे, मज़ाक उड़ाते हैं आदमी
इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का

मैं झूठ की जगमगाती महफ़िल में आज सच बोलने लगा हूं
मैं हो के मजबूर अपने गीतों में ज़हर फिर घोलने लगा हूं
ये ज़हर शायद उड़ा दे नश्शा ग़ुरूर में डूबी ज़िन्दगी का

ये काग़ज़ी फूल जैसे चेहरे, मज़ाक उड़ाते हैं आदमी
इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का

मेहदी हसन साहब सूफि़यान अंदाज़ में कह रहे हैं--अच्‍छी बात करो, अच्‍छी बात कहो ।।

सुखनसाज़ पर ये मेरी पहली हाजिरी है । और इसे ख़ास बनाने की कोशिश में यहां आने में इतनी देर लग गई । वरना अशोक भाई ने तो कई हफ्तों पहले मुझे सुख़नसाजि़या बना डाला था । बहरहाल, मैंने अपने लिए सुखनसाज़ी के कुछ पैमाने तय किये हैं । उन पर अमल करते हुए ही इस चबूतरे से साज़ छेड़े जाएंगे ।

mehdi hasan wheel chair चित्र साभार फ्लिकर

मेहदी हसन साहब को मैंने तब पहली बार जाना और सुना जब मैं स्‍कूल में हुआ करता था । एक दोस्‍त ने कैसेट की शक्‍ल में एक ऐसी आवाज़ मुझे दे दी, जिसने जिंदगी की खुशनसीबी को कुछ और बढ़ा दिया । उसके बाद मेहदी हसन को सुनने के लिए मैं शाम चार बजे के आसपास अपने रेडियो पर शॉर्टवेव पर रेडियो पाकिस्‍तान की विदेश सेवा को ट्यून किया जाने लगा । उस समय अकसर पाकिस्‍तानी फिल्‍मों के गाने सुनवाए जाते थे । ये गाना पहली बार मैंने तभी सुना था । उसके बाद फिर भोपाल में मैग्‍‍नासाउंड पर निकला एक कैसेट हाथ लगा जिसमें उस्‍ताद जी के पाकिस्‍तानी फिल्‍मों के गाए गाने थे । और हाल ही में मुंबई में एक सी.डी. हाथ लग गयी जिसमें उस्‍ताद जी के कई फिल्‍मी गीत हैं साथ ही ग़ज़लें भी ।

तो आईये सुख़नसाज़ पर अपने प्रिय गायक, दुनिया के एक रोशन चराग़, ग़ज़लों की दुनिया के शहंशाह उस्‍ताद मेहदी हसन का गाया एक फिल्‍मी गीत सुना जाए । आपको बता दें कि ये सन 1976 में आई पाकिस्‍तानी फिल्‍म 'फूल और शोले' का गाना है । इसके मुख्‍य कलाकार थे ज़ेबा और मोहम्‍मद अली । मुझे सिर्फ़ इतना पता चल सका है कि इस फिल्‍म के संगीतकार मुहम्‍मद अशरफ़ थे । अशरफ़ साहब ने मेहदी हसन के कुल 124 गाने स्‍वरबद्ध किए हैं ।

मैं जब भी इस गाने को सुनता हूं यूं लगता है मानो को दरवेश, कोई फ़कीर गांव के बच्‍चों को सिखा रहा है कि दुनिया में कैसे जिया जाता है । नैतिकता का रास्‍ता कौन सा है । हालांकि नैतिक शिक्षा के ये वो पाठ हैं जिन्‍हें हम बचपन से सुनते आ रहे हैं । पर जब इन्‍हें उस्‍ताद मेहदी हसन की आवाज़ मिलती है तो यही पाठ नायाब बन जाता है । अशरफ साहब ने इस गाने में गिटार और बांसुरी की वो तान रखी है कि दिल अश अश कर उठता है । तो सुकून के साथ सुनिए सुखनसाज़ की ये पेशक़श ।

अच्‍छी बात कहो, अच्‍छी बात सुनो,

अच्‍‍छाई करो, ऐसे जियो

चाहे ये दुनिया बुराई करे

तुम ना बुराई करो ।।

दुख जो औरों के लेते हैं

मर के भी जिंदा रहते हैं

आ नहीं सकतीं उसपे बलाएं

लेता है जो सबकी दुआएं

अपने हों या बेगाने हों

सबसे भलाई करो ।। अच्‍छी बात करो ।।

चीज़ बुरी होती है लड़ाई

होता है अंजाम तबाही

प्‍यार से तुम सबको अपना लो

दुश्‍मन को भी दोस्‍त बना लो

भटके हुए इंसानों की तुम

राहनुमाई करो ।। अच्‍छी बात करो ।।

सुखनसाज़ पर उस्‍ताद मेहदी हसन के फिल्‍मी गीतों और उनके लिए दुआओं का सिलसिला जारी रहेगा ।

Thursday, August 21, 2008

ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबां का शऊर आ जाएगा, तुम वहां तक आ तो जाओ हम जहां तक आ गए

अल्बम 'मेराज-ए-ग़ज़ल' से प्रस्तुत है एक और शानदार ग़ज़ल आशा भोंसले की आवाज़ में:



हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-नेहां तक आ गए
हम तो दिल तक चाहते थे, तुम तो जां तक आ गए

ज़ुल्फ़ में ख़ुशबू न थी, या रंग आरिज़ में न था
आप किस की जुस्तजू में गुलसितां तक आ गए

ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबां का शऊर आ जाएगा
तुम वहां तक आ तो जाओ हम जहां तक आ गए

उनकी पलकों पे सितारे, अपने होटों पे हंसी
क़िस्सा-ए-ग़म कहते-कहते हम यहां तक आ गए

Saturday, August 16, 2008

बिछुआ बाजे रे ... ओ बलम - इक़बाल बानो

दोस्तो संगीत का कोई ज्ञान नहीं है मुझे .... दो कौड़ी का नहीं. बस लत है सुनने की ...

और जब इक़बाल बानो की आवाज़ में ऐसा कुछ हो ... तो लगता है कि कुछ और लोग भी सुनें.

तो आज सुनिए ये ग़ज़ब .... "बिछुआ बाजे रे ... ओ बलम...............".



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Friday, August 15, 2008

जश्ने आज़ादी की शाम; जब हो इत्मीनान; सुनें ये ग़ज़ल

छोटी बहर की ये ग़ज़ल उस्ताद मेहंदी हसन की क्लासिकी चीज़ों में शुमार की जा सकती है. ज़माने को जल्दी होगी,ख़ाँ साहब अपना तेवर क़ायम किये हुए हैं.ये कहा जाता है कि नये गुलूकारों ने रिवायती बाजों से अलहदा नये साज़ ग़ज़ल में इस्तेमाल किये लेकिन यहाँ सुनिये तो …सिंथेसाइज़र है और हवाइन गिटार भी . नये नये कमाल किये जाते हैं मेहंदी हसन साहब अपनी गुलूकारी से. सॉफ़्ट तबला तो है ही, ढोलक की थाप भी है. एक अंतरे मे सारंगी जैसा है लेकिन हारमोनियम लगभग ग़ायब सी है जो अमूमन मेहंदी हसन साहब के साथ होती ही है.

मेहदी हसन साहब की ग़ज़लों में बंदिश, एक ख़ास मूड को ज़ाहिर करती है यहाँ बहुत कोमल स्वरों की आमद हुई है. ऐसी ग़ज़लों को सुनने के लिये एक आपकी मानसिक तैयारी होनी भी ज़रूरी भी है (ये बात उनके लिये जो इस ग़ज़ल को पहली बार सुनने वाले हैं)

आइये हुज़ूर जश्ने आज़ादी की दिन भर की व्यस्तताओं के बाद आपको कुछ इत्मीनान फ़राहम हो तो मुलाहिज़ा फ़रमाइये मेहंदी हसन साहब की ये ग़ज़ल; मतला यूँ है.......


कोई हद नहीं है कमाल की,
कोई हद नहीं है जमाल की


Thursday, August 14, 2008

दिल के ज़ख़्म दिखा कर हमने महफ़िल को गरमाया है



उस्ताद मेहदी हसन का अलबम 'कहना उसे' अब एक अविस्मरणीय क्लासिक बन चुका है. फ़रहत शहज़ाद साहब की इन दिलफ़रेब ग़ज़लों को जब मेहदी हसन साहब ने गाया था, उनका वतन पाकिस्तान ज़िया उल हक़ के अत्याचारों से त्रस्त था. मैंने पहले भी बताया था कि इस संग्रह की सारी ग़ज़लें एक बिल्कुल दूसरे ही मूड की रचनाएं हैं - ऊपर से बेहद रूमानी और असल में बेहद पॉलिटिकल. इस संग्रह को प्रस्तुत करने में दोनों ने अपनी जान का जोख़िम उठाया था. हमें उस्ताद की हिम्मत पर भी नाज़ है.

उसी संग्रह से सुनिये एक और ग़ज़ल:




क्या टूटा है अन्दर-अन्दर, क्यों चेहरा कुम्हलाया है
तन्हा-तन्हा रोने वालो, कौन तुम्हें याद आया है

चुपके-चुपके सुलग रहे थे, याद में उनकी दीवाने
इक तारे ने टूट के यारो क्या उनको समझाया है

रंग-बिरंगी महफ़िल में तुम क्यों इतने चुप-चुप हो
भूल भी जाओ पागल लोगो, क्या खोया क्या पाया है

शेर कहां हैं ख़ून है दिल का, जो लफ़्ज़ों में बिखरा है
दिल के ज़ख़्म दिखा कर हमने महफ़िल को गरमाया है

अब शहज़ाद ये झूठ न बोलो, वो इतना बेदर्द नहीं
अपनी चाहत को भी परखो, गर इल्ज़ाम लगाया है

(फ़ोटो में व्हीलचेयर पर बैठे हैं लम्बे समय से अस्वस्थ ख़ां साहेब. उनके लिए हमारी लगातार दुआएं हैं और उनकी अथक साधना के प्रति सतत कृतज्ञता का बोध भी)

अल्फ़ाज़ कहाँ से लाऊँ मैं,छाले की टपक समझाने को

सुरमंडल लेकर बैठें हैं उस्ताद जी.सारंगी ऐसी गमक रही है कि दिल लुटा जा रहा है. ग़ज़ल को बरतने का जो हुनर मेहंदी हसन ने पाया है उसे क्या हम दुनिया का आठवाँ आश्चर्य नहीं कह सकते.शहद सी टपकती आवाज़.मेरे शहर के युवा गायक गौतम काले से ये पोस्ट लिखते लिखते पूछ बैठा भाई ये क्या राग है.गौतम बोले दादा जब मेंहदी हसन साहब गा रहे हैं तो सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि ख़ाँ साहब किस मूड में बैठे हैं . गौतम ने बताया कि कहीं लगता है कि बात मारवा से शुरू हुई है (इस ग़ज़ल में नहीं) और पूरिया के स्वर भी लग गए हैं.शिवरंजनी की स्पष्ट छाया नज़र आ रही है मतले के पहले मिसरे पर और दूसरे तक आते आते न जाने क्या सुर लग जाएगा. गौतम यह कहना चाह रहे थे कि मेहंदी हसन साहब के ज़हन में इतना सारा संगीत दस्तेयाब है कि वह किस शक्ल में बाहर आएगा ; अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता. कुछ ग़ज़लें ज़रूर एक राग की सम्पूर्ण छाया लेकर प्रकट होती है जैसे रंजिश ही सही में यमन के ख़ालिस स्वर हैं.

बहरहाल ग़ज़ल के दीवानों को तो सिर्फ़ इस बात से मतलब है कि मेहंदी हसन साहब गा रहे हैं:



किसका कलाम है,राग क्या है , कम्पोज़िशन किसकी है ; इस सब से एक ग़ज़लप्रेमी को क्या मतलब.आइये,एक ऐसी ही ग़ज़ल समाअत फ़रमाइये. कम्पोज़िशन में सादगी का रंग भरा है और ख़ाँ साहब ने भी उसे वैसा ही निभाया है.

धीमे धीमे जवाँ होता मौसीक़ी का जादू आपके दिल में आपोआप में उतर जाता है.

Sunday, August 10, 2008

रफ़ी साहब की मख़मली आवाज़ में एक अविस्मरणीय गुजराती ग़ज़ल

ईरान से आई ग़ज़ल जिस तरह हिंदुस्तान की मिट्टी में रच बस गई वह अदभुत है.न जाने कितने मतले रोज़ रचे जाते हैं गाँव-गाँव , शहर-शहर में.ग़ज़ल की ताक़त और आकर्षण देखिये कि वह उर्दू महदूद नहीं , वह दीगर कई भाषाओं में यात्रा कर रही है जिनमें मराठी,गुजराती,सिंधी,बांग्ला,राजस्थानी तो शामिल हैं ही मराठी और निमाड़ी जैसे लोक – बोलियाँ भी जुड़ गईं है.ख़ूब फल-फूल रही है ग़ज़ल.बहर के अनुशासन में रह कर अपनी बात को कहने की जो आज़ादी शायर को मिलती है वही इसे लोकप्रिय बनाती है.
आज पहली बार उर्दू से हटकर आपके लिये सुख़नसाज़ पर पेश-ए-ख़िदमत है एक गुजराती ग़ज़ल.गायक हैं हमारे आपके महबूब गुलूकार मोहम्मद रफ़ी साहब. इस महान गायक की गायकी का कमाल देखिये किस तरह से एक दूसरी भाषा को अपने गले से निभाया है. तलफ़्फ़ुज़ की सफ़ाई में तो रफ़ी साहब बेजोड़ हैं ही, भाव-पक्ष को भी ऐसे व्यक्त कर गए हैं कि कोई गुजराती भाषी गायक भी क्या करेगा.मज़ा देखिये की एक क्षेत्रिय भाषा में गाते हुए रफ़ी साहब ने ज़रूर को जरूर ही गाया है ग़नी को गनी और जहाँ ळ गाना है वहाँ ल नहीं गाया है..एक ख़ास बात और...मक़्ते में एक जगह जहाँ श्वास की बात आई ..वहाँ ध्यान से सुनियेगा कि एक नन्हा सा अंतराल (पॉज़) देकर रफ़ी साहब ने क्या कमाल किया है.
जब आप रफ़ी साहब को सुन रहे होते हैं तो लगता है क़ायनात की सबसे पाक़ आवाज़ आपको नसीब हो गई है.मुझे यक़ीन है ग़ज़ल और मौसीक़ी के मुरीदों के लिये भाषा किसी तरह की अड़चन नहीं होगी.कम्पोज़िशन,गायकी और भाव की दृष्टि से आप सुख़नसाज़ का यह रविवारीय नज़राना तहे-दिल से क़ुबूल करेंगे.




दिवसो जुदाई ना जाये छे,ए जाशे जरूर मिलन सुधी
मारो हाथ झाली ने लई जशे,मुझ शत्रुओज स्वजन सुधी

दिन जुदाई के बीत रहे हैं लेकिन ये मुझे मिलन तक ले जाएंगे.
मेरे दुश्मन ही मेरा हाथ थाम कर मुझे अपने स्वजनों के पास ले जाएंगे


न धरा सुधी न गगन सुधी,नही उन्नति ना पतन सुधी
फ़कत आपणे तो जवु हतुं, अरे एकमेक ना मन सुधी

न धरती तक, न आसमान तक , न पतन तक न उन्नति तक
हमें तो सिर्फ़ जाना था एक दूसरे के मन तक


तमे रात ना छो रतन समाँ,ना मळो है आँसुओ धूळ माँ
जो अरज कबूल हो आटली,तो ह्र्दय थी जाओ नयन सुधी

आप तो ग़रीब के लिये दमकते हीरे से हो,धूल और आँसू में नहीं जा मिलते
अगर प्रार्थना स्वीकार हो इतनी तो ह्र्दय से नयन तक तो चले जाइये.


तमे राज-राणी ना चीर सम,अमें रंक नार नी चूंदड़ी
तमे तन पे रहो घड़ी बे घड़ी,अमें साथ दयै कफ़न सुधी

आप तो राजरानी के वस्त्र जैसे हैं और हम ग़रीब की चूनर जैसे
आप तन पर घड़ी दो घड़ी के लिये रहते हैं,हम तो कफ़न हो जाने तक के साथी हैं


जो ह्र्दय नी आग वधी गनी तो ख़ुद ईश्वरेज कृपा करी
कोई श्वास बंद करी गयुँ,के पवन ना जाए अगन सुधी

अगर ह्र्दय की आग ग़नी(शायर ग़नी दहीवाला का तख़ल्लुस) बढ़ गई,तो ख़ुद ईश्वर ने ही कृपा की है ऐसा मानो ;कोई श्वास को बंद कर गया है ,हवा अग्नि तक नहीं जा रही है.

Friday, August 8, 2008

ख़ुदा की शान है .....

"सखी !!"

मेरा जो कुछ है, सब "सखी" का है इस लिए आगाज़ इसी नाम से करता हूँ :

आज पहली बार यहाँ कुछ सुनाने की जुर्रत कर रहा हूँ .... इस लिए क्या कहूँ .... आज मेरी पसंद पे अख्तरी बाई "फैज़ाबादी" की आवाज़ में ये ग़ज़ल पेश है ...... मैं आज भी लाख कुछ भी, किसी को भी सुन लूँ, इस आवाज़, और इस अंदाज़ का जादू मुझ पे हमेशा की तरह तारी है ... शायद हमेशा रहेगा .....
एक छोटी सी ग़ज़ल पेश है :




ख़ुदा की शान है हम यूँ जलाए जाते हैं
हमारे सामने दुश्मन बुलाए जाते हैं

हमारे सामने हँस हँस के गै़र से मिलना
ये ही तो ज़ख्म कलेजे को खाए जाते हैं

हमारी बज़्म और उस बज़्म में है फर्क इतना
यहाँ चिराग़ वहाँ दिल जलाए जाते हैं

Wednesday, August 6, 2008

तुम बादशाह-ए-हुस्न हो, हुस्न-ए-जहान हो

बुलबुल ने गुल से
गुल ने बहारों से कह दिया
इक चौदहवीं के चांद ने
तारों से कह दिया

शब्दों को तक़रीबन सहलाते हुए उस्ताद यह बहुत ही मधुर, बहुत ही मीठा गीत शुरू करते हैं. गीत पुराना है और ख़ां साहब की आवाज़ में है वही कविता और गायकी को निभाने की ज़िम्मेदार मिठास:



दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं
इक दिलरुबा है दिल में जो फूलों से कम नहीं

तुम बादशाह-ए-हुस्न हो, हुस्न-ए-जहान हो
जाने वफ़ा हो और मोहब्बत की शान हो

जलवे तुम्हारे हुस्न के तारों से कम नहीं

(इस में एक पैरा और है लेकिन मेरे संग्रह से में वो वाला वर्ज़न नहीं मिल रहा जहां मेहदी हसन साहब ने इसे भी गाया है:

भूले से मुस्कराओ तो मोती बरस पड़ें
पलकें उठा के देखो तो कलियाँ भी हँस पड़ें
ख़ुश्बू तुम्हारी ज़ुल्फ़ की फूलों से कम नहीं)

Monday, August 4, 2008

मेरी आहों में असर है के नहीं देख तो लूँ

उस्ताद मेहंदी हसन ग़ज़ल के सुमेरू हैं। जब जब भी सुख़नसाज़ पर ख़ॉं साहब तशरीफ़ लाएँ हैं हमने महसूस किया है कि ग़ज़ल का परचम सुरीला हो उठा है। इन दिनों अशोक भाई के साथ जारी मेहंदी हसन साहब की ग़ज़लों का ये महोत्सव दरअसल इस महान गुलूकार के प्रति हमारी भावभीनी आदरांजली है। पूरी दुनिया जानती है कि ख़ॉं साहब की तबियत नासाज़ है और वे कराची के एक अस्पताल में आराम फ़रमा रहे हैं। हमने देखा है न कि जब भी घर में कोई बीमार होता है तो हम हर तरह के इलाज के लिये यहॉं-वहॉं भागते हैं। सुख़नसाज़ पर ग़ज़लों का ये सिलसिला जैसे हमारे दिलों में दुआओं का सैलाब लेकर ख़ॉं साहब की ग़ज़लों के ठौर का सफ़र कर रही हैं। गोया दुआ मॉंग रहे हैं हम सब कि हमारे मेहंदी हसन साहब चुस्त और तंदरुस्त होकर घर लौटें।

आज सुख़नसाज़ पर पेश की जा रही ये ग़ज़ल मेहंदी हसन घराने के रिवायती अंदाज़ की बेहतरीन बानगी है। पहले भी कई बार कह चुका हूँ और दोहराने में कोई हर्ज़ नहीं कि मेहंदी हसन इंडियन सब-कांटिनेंट की ग़ज़ल युनिवर्सिटी हैं और हम सब सुनने वाले, गाने-बजाने वाले, लिखने-पढ़ने वाले इस युनिवर्सिटी के तालिब-ए-इल्म हैं। मौसीक़ी के सारे सबक़ मेहंदी हसन साहब के यहॉं पसरे पड़े हैं। आप जो चाहें सीख लें, साथ ले जाएँ। गायकी की सादगी, पोएट्री की समझ, बंदिश में एक ठसकेदार रवानी और कंपोजिशन का बेमिसाल तेवर.

तो चलिये एक बार फ़िर मुलाहिज़ा फ़रमाइये उस्ताद मेहंदी हसन साहब की ये बेजोड़ बंदिश


मेरी आहों में असर है के नहीं देख तो लूँ
उसको कुछ मेरी ख़बर है के नहीं देख तो लूँ


मिटता नहीं है जेहन से, यूं छा गया कोई

आज सुनते हैं उस्ताद से एक गीत. बहुत - बहुत मीठा गीत है. सुनिये और बस अपने दिल को अच्छे से थामे रहिये:



यूं ज़िन्दगी की राह में टकरा गया कोई
इक रोशनी अंधेरे में बिखरा गया कोई

वो हादसा वो पहली मुलाकात क्या कहूं
इतनी अजब थी सूरत-ए-हालात क्या कहूं
वो कहर वो ग़ज़ब वो जफ़ा मुझको याद है
वो उसकी बेरुख़ी कि अदा मुझको याद है
मिटता नहीं है जेहन से, यूं छा गया कोई

पहले मुझे वो देख के बरहम सी हुई
फिर अपने ही हसीन ख़यालों में खो गई
बेचारगी पे मेरी उसे रहम आ गया
शायद मेरे तड़पने का अन्दाज़ भा गया
सांसों से भी क़रीब मेरे आ गया कोई

अब उस दिल-ए-तबाह की हालात न पूछिए
बेनाम आरज़ू की लज़्ज़त न पूछिए
इक अजनबी था रूह का अरमान बन गया
इक हादसा का प्यार का उन्वान बन गया
मंज़िल का रास्ता मुझे दिखला गया कोई

('सुख़नसाज़' आज से थोड़ा और 'अमीर' हो गया. रेडियोवाणी जैसे ज़बरदस्त संगीत-ब्लॉग के संचालक यूनुस आज से 'सुख़नसाज़' से जुड़ गए हैं. सो यह पोस्ट उनके यहां आने के स्वागत में समर्पित की जाती है)

Saturday, August 2, 2008

मुमकिन हो आप से तो भुला दीजिए मुझे

शहज़ाद अहमद 'शहज़ाद' की ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है आज. अभी उस्ताद की महफ़िल कुछ दिन और जारी रखने का इरादा है.



मुमकिन हो आप से, तो भुला दीजिए मुझे
पत्थर पे हूं लकीर, मिटा दीजिए मुझे

हर रोज़ मुझी से ताज़ा शिकायत है आपको
मैं क्या हूं एक बार बता दीजिए मुझे

क़ायम तो हो सके रिश्ता गुहर के साथ
गहरे समन्दरों में बहा दीजिए मुझे

शहज़ाह यूं तो शोला-ए-जां सर्द हो चुका
लेकिन सुलग उठूं तो हवा दीजिए मुझे

Friday, August 1, 2008

ताज़ा हवा बहार की दिल का मलाल ले गई


ग़ज़ल को सुनने की एक ख़ास वजह शायरी का लुत्फ़ लेना होता है.लेकिन जब ग़ज़ल उस्ताद मेहदी हसन साहब गा रहे हों तब सुनने वाले के कान मौसीक़ी पर आ ठहरते हैं. कई ग़ज़लें हैं जो आप सिर्फ़ ख़ाँ साहब की गायकी की भव्यता का दीदार करने के लिये सुनते हैं. यहाँ आज पेश हो रही ग़ज़ल उस ज़माने का कारनामा है जब संगीत में सिंथेटिक जैसा शब्द सुनाई नहीं देता था. मैं यहाँ ये साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मुझे विदेशी वाद्यों से गुरेज़ नहीं , उन्हें जिस तरह से इस्तेमाल किया जाता है उससे है. ख़ाँ साहब के साहबज़ादे कामरान भाई ने कई कंसर्ट्स में क्या ख़ूब सिंथेसाइज़र बजाया है. लेकिन जो पेशकश मैं आज लाया हूँ वह सुख़नसाज़ के मूड और तासीर पर फ़बती है.

राग जैजैवंती में सुरभित ये ग़ज़ल रेडियो के सुनहरी दौर का पता देती है. रेडियो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का संगीत इदारा एक ज़माने में करिश्माई चीज़ों को गढ़ता रहा है. सारे कम्पोज़िशन्स हारमोनियम,बाँसुरी,वॉयलिन,सितार और सारंगी बस इन चार-पाँच वाद्यों के इर्द-गिर्द सारा संगीत सिमटे होते हैं. इस ग़ज़ल में भी यही सब कुछ है. सधा हुआ...शालीन और गरिमामय.रिद्म में सुनें तो तबला एक झील के पानी मानिंद ठहरा हुआ है और उसके पानी में कोई एक सुनिश्चित अंतराल पर कंकर डाल रहा है.

मेहदी हसन के पाये का आर्टिस्ट गले से क्या नहीं कर सकता. उनकी आवाज़ ने जो मेयार देखे हैं कोई देख पाया है क्या. पूरी एक रिवायत पोशीदा है उनकी स्वर-यात्रा में. लेकिन देखिये, सुनिये और समझिये तो ख़ाँ साहब कैसे मासूम विद्यार्थी बन बैठे गा रहे हैं...क्योंकि यहाँ कम्पोज़िशन किसी और की है. आज़ादी नहीं है अपनी बात कहने की ...जो संगीत रचना में है (गोया नोटेशन्स पढ़ कर गा रहे हैं जैसे दक्षिण भारत में त्यागराजा को गाय जाता है या बंगाल में रवीन्द्र संगीत को )बस उसे जस का तस उतार रहे हैं ... लेकिन फ़िर भी छोटी छोटी जगह जो मिली है गले की हरक़त के लिये उसमें वे दिखा दे रहे हैं कि यहाँ है मेहंदी हसन...

इस आलेख की हेडलाइन में शायरी के पार की बात का मतलब ये है कि बहुत साफ़गोई से कहना चाहूँगा कि एक तो मतले तो काफ़ी गहरा अर्थे लिये हैं लेकिन मौसीक़ी का आसरा कुछ इस बलन का है कि मेहदी हसन साहब दिल में उतर कर रह जाते है.

अंत में एक प्रश्न आपके लिये छोड़ता हूँ...

हम जैसे थोड़े बहुत कानसेनों के लिये इतनी ही जैजैवंती काफ़ी है

सादगी से मेहदी हसन साहब के कंठ से फ़ूट कर हमारे दिल में समाती सी.

हम सब को ग़ज़ल के इस दरवेश का दीवाना बनाती सी.

Thursday, July 31, 2008

मेहदी हसन साहब की कक्षा में जानिये "आवारा गाना" क्या होता है

मेरे पास मेहदी हसन साहब का एक तीन सीडी वाला सैट है. विशुद्ध शास्त्रीय शैली में गाई उस्ताद की ग़ज़लों की इस पूरी श्रृंखला के नगीने मैं, जब-तब एक-एक कर आपकी खि़दमत में पेश करूंगा. आज आप बस उस्ताद को बोलते हुए सुनिए. महफ़िल शुरू करने से पहले वे अपने गायन का संक्षिप्त इतिहास बताते हुए ग़ज़ल-गायकी और शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को तो बताते ही हैं, उर्दू शायरी के बड़े नामों का ज़िक्र भी बहुत अदब और मोहब्बत के साथ करते हैं.

मेहदी हसन साहब को चाहने वालों के लिए यह बहुत ख़ास प्रस्तुति:


Wednesday, July 30, 2008

सहर की आस तो है ज़िन्दगी की आस नहीं

फ़िराक गोरखपुरी साहब का एक शेर मुझे बहुत पसन्द है और इसीलिए मैंने इसे सुख़नसाज़ के साइडबार में स्थाई रूप से लगाया हुआ है:

मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है,
तुझे कुछ भूलता सा जा रहा हूं
ये सन्नाटा है मेरे पांव की चाप
'फ़िराक़' कुछ अपनी आहट पा रहा हूं

ये किसी महबूब शख़्स के लगातार भीतर रहने के बावजूद अपनी खु़द के पांवों की आहट सुन पाने का आत्मघाती हौसला है जो इश्क़ को इश्क बनाता है. दुनिया भर की तमाम कलाओं में न जाने कितनी मरतबा कितने-कितने तरीक़ों से इस शै को भगवान से बड़ा घोषित किया जा चुका है. लेकिन पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन्सान अपनी औक़ात को भूल कर इस सर्वशक्तिमान से भिड़ता जाता है. इस भिड़ंत के निशान हमारी कलाओं में अनमोल धरोहरों की तरह सम्हाले हुए हैं.

छोड़िये ज़्यादा फ़िलॉसॉफ़ी नहीं झाड़ता पर इसी क्रम में फ़ैज़ साहब का एक और शेर जेहन में आ रहा है:


दुनिया ने तेरी याद से बेग़ाना कर दिया
तुझ से भी दिलफ़रेब हैं ग़म रोज़गार के.

और आज देखिए यहां उस्ताद क्या गा रहे हैं:

मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाए
बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं



वो दिलनवाज़ है लेकिन नज़रशनास नहीं
मेरा इलाज मेरे चारागर के पास नहीं

गुज़र रहे हैं अजब मरहलों से दीदः-ओ-दिल
सहर की आस तो है, ज़िन्दगी की आस नहीं

कभी-कभी जो तेरे क़ुर्ब में गुज़ारे थे
अब उन दिनों का तसव्वुर भी मेरे पास नहीं

मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाए
बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं

Tuesday, July 29, 2008

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ, मुझ पे अहसान किया हो जैसे

जनाब अहसान दानिश की यह ग़ज़ल मुझे इस एक ख़ास शेर के कारण बहुत ऊंचे दर्ज़े की लगती रही है:

इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूं न छुप हम से ख़ुदा हो जैसे


और जब गाने वाले उस्ताद मेहदी हसन हों तो और क्या चाहिये.




यूं न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज-ए-सबा हो जैसे

लोग यूं देख के हंस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे

इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूं न छुप हम से ख़ुदा हो जैसे

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझ पे अहसान किया हो जैसे

(मौज-ए-सबा: हवा का झोंका, शिर्क: ईश्वर को बुरा भला कहना - Blasphemy)

Monday, July 28, 2008

और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद

कुछ दिन पहले मैंने मेहदी हसन साहब के एक अलबम 'दरबार-ए-ग़ज़ल' का ज़िक्र किया था. आज उसी से सुनिए नासिर काज़मी की एक ग़ज़ल:



ज़िन्दगी को न बना दें वो सज़ा मेरे बाद
हौसला देना उन्हें मेरे ख़ुदा मेरे बाद

कौन घूंघट को उठाएगा सितमगर कह के
और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद

हाथ उठते हुए उनके न देखेगा
किस के आने की करेंगे वो दुआ मेरे बाद

फिर ज़माने मुहब्बत की न पुरसिश होगी
रोएगी सिसकियां ले-ले के वफ़ा मेरे बाद

वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूं
उसका क्या जानिए, क्या हाल हुआ मेरे बाद

Sunday, July 27, 2008

जिन्हें एतमाद-ए-बहार था, वो ही फूल रंग बदल गए

शायर लखनवी की यह ग़ज़ल थोड़ा कम लोकप्रिय हुई. ख़ां साहब की आवाज़ में आज की ख़ास पेशकश:



जो ग़मे हबीब से दूर थे, वो ख़ुद अपनी आग में जल गए
जो ग़मे हबीब को पा गए, वो ग़मों से हंस के निकल गए

जो थके थके से थे हौसले, वो शबाब बन के मचल गए
वो नज़र-नज़र से गले मिले, तो बुझे चिराग़ भी जल गए

ये शिकस्त-ए-दीद की करवटें भी बड़ी लतीफ़-ओ-जमील थीं
मैं नज़र झुका के तड़प गया, वो नज़र बचा के निकल गए

न ख़िज़ा में है कोई तीरगी, न बहार में कोई रोशनी
ये नज़र-नज़र के चिराग़ हैं, कहीं बुझ गए कहीं जल गए

जो संभल-संभल के बहक गए, वो फ़रेब ख़ुर्द-ए-राह थे
वो मक़ाम-ए-इश्क़ को पा गए, जो बहक-बहक के संभल गए

जो खिले हुए हैं रविश-रविश, वो हज़ार हुस्न-ए-चमन सही
मगर उन गुलों का जवाब क्या जो कदम-कदम पे कुचल गए

न है शायर अब ग़म-ए-नौ-ब-नौ न वो दाग़-ए-दिल न आरज़ू
जिन्हें एतमाद-ए-बहार था, वो ही फूल रंग बदल गए

(हबीब: मेहबूब, शिकस्त-ए-दीद: नज़र की हार, लतीफ़-ओ-जमील: आकर्षक और आनन्ददायक, खिज़ा: पतझड़, तीरगी: अन्धेरा, ख़ुर्द: सूक्ष्म, रविश: बग़ीचे के बीच छोटे-छोटे रास्ते, नौ-ब-नौ: ताज़ा, एतमाद: पक्का यक़ीन)

Saturday, July 26, 2008

जहां कहीं था हिना को खिलना, हिना वहीं पे महक रही है

आज सुनते हैं उस्ताद को थोड़ा सा हल्के मूड में. सुनते हुए आप को कोई पहले से सुने किसी गीत या ग़ज़ल की याद आने लगे तो अचरज नहीं होना चाहिए. मुझे ठीक ठीक तो पता नहीं लेकिन एक साहब ने कभी बताया था कि उस्ताद ने इसे एक फ़िल्म के लिए रिकॉर्ड किया था. यदि कोई सज्जन इस विषय पर कुछ रोशनी डाल सकें, तो अहसान माना जाएगा:



हमारी सांसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है
लबों पे नग़्मे मचल रहे हैं, नज़र से मस्ती छलक रही है

कभी जो थे प्यार की ज़मानत, वो हाथ हैं ग़ैर की अमानत
जो कसमें खाते थे चाहतों की उन्हीं की नीयत बहक रही है

किसी से कोई गिला नहीं है, नसीब ही में वफ़ा नहीं है
जहां कहीं था हिना को खिलना, हिना वहीं पे महक रही है

वो जिनकी ख़ातिर ग़ज़ल कही थी, वो जिनकी ख़ातिर लिखे थे नग़्मे
उन्हीं के आगे सवाल बन के ग़ज़ल की झांझर झनक रही है

Thursday, July 24, 2008

फूल खिले शाख़ों पर नये और दर्द पुराने याद आए

आवाज़ का सोज़,शायरी में कहा-अनकहा गाने और मौसीक़ी के ज़रिये ख़ुद एक नाकाम प्रेमी बन जाने का हुनर मेहदी हसन साहब से बेहतर कौन जानता है. गायकी के ठाठ का जलवा और फ़िर भी उसमें एक लाजवाब मासूमियत (जो इस ग़ज़ल की ज़रूरत है)कैसे बह निकली है इस ग़ज़ल में.एक एक शब्द के मानी जैसे गले में गलाते जा रहे हैं उस्ताद.या कभी ऐसे सुनाई दे रहे जैसे अपनी माशूका के गाँव में आकर नदी किनारे पर एक दरख़्त के नीचे आ बैठे हैं जहाँ कभी रोज़ आना था,मुलाक़ातें थी,बातें थीं,अपनेपन थी,रूठने थे,मनाने थे.

अगर सुनने वाला ज़रा सा भी भावुक है तो अपने सुखी/दुखी माज़ी में अपने आप चला जाता है. कभी गले से, कभी बाजे से कहर ढाते मेहंदी हसन साहब जैसे ज़माने भर का दर्द अपनी आवाज़ में समेट लाए हैं. कैसी विकलता है अपनी कहानी कहने की.जैसे महावर लगे पैसे में कोई तीख़ा काँटा चुभ आया है.अब कहना भी है और रोना भी आ रहा है. बात पूरी जानी चाहिये. दीवानगी के प्रवक्ता बन गए हैं मेहंदी हसन साहब. रागदारी का पूरा शबाब, गोया वाजिद अली शाह के दरबार में गा रहे हों... ग़ज़ल को ठुमरी अंग से सँवारते. आवाज़ से चित्रकारी न देखी हो तो इस ग़ज़ल को सुनिये लगेगा मन, मौसम, विवशता, रिश्ते और रूहानी तबियत के कमेंटेटर बन बैठे हैं मेहदी हसन साहब.

शायरी को कैसे पिया और जिया जाता है , उस्ताद मेहदी हसन की इस ग़ज़ल में महसूस कीजिये. न जाने कितने दिलजलों को आवाज़ दे दी है उन्होनें इस ग़ज़ल से.ठंडी सर्द हवा के झोंके ..वाला मतला गाते वक़्त तो ऐसा लगता है जैसे जिस्म में हवा घुसे चले जा रही है और किसी की याद में आग के सामने बैठी विरहिणी ज़ार ज़ार आँसू बहाती अपने दुपटटे का कोना उंगलियों पर लपेट रही है...खोल रही है ..और इस सब में अपने प्रियतम के साथ गुज़रा ज़माना साकार हो रहा है.

अपनी बात इस नोट पर ख़त्म करना चाहता हूँ कि मेहदी हसन की ये ग़ज़लें न होती तो असंख्य दिल अपनी बात कहने की इबारतें कहाँ से लाते ?

जी चाहता मर जाइये इस ग़ज़ल पर...ज़माने में है कुछ मेहंदी हसन की आवाज़ के सिवा ... ग़ज़ल रज़ी तीरमाज़ी साहब की है जिनकी एक और रचना 'दिल वालो क्या देख रहे हो' को ग़ुलाम अली ने बड़ा मीठा गाया था.




भूली बिसरी चांद उम्मीदें, चंद फ़साने याद आये
तुम याद आये और तुम्हारे साथ ज़माने याद आये

दिल का चमन शादाब था फिर भी ख़ाक सी उडती रहती थी
कैसे ज़माने ग़म-ए-जानां तेरे बहाने याद आये

ठंडी सर्द हवा के झोंके आग लगा कर छोड़ गए
फूल खिले शाखों पे नए और दर्द पुराने याद आये

हंसने वालों से डरते थे, छुप छुप कर रो लेते थे
गहरी - गहरी सोच में डूबे दो दीवाने याद आये

दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं चलन तमाम



ग़ुलाम अली द्वारा विख्यात की गई ग़ज़ल 'चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है' लिखने वाले हसरत मोहानी साहब (१८८१-१९५१) की ग़ज़ल गा रहे हैं उस्ताद मेहदी हसन:




रोशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम

हैरत ग़ुरूर-ए-हुस्न से शोखी से इज़्तराब
दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं चलन तमाम

अल्लाह रे जिस्म-ए-यार की ख़ूबी कि ख़ुद-ब-ख़ुद
रंगीनियों में डूब गया पैराहन तमाम

देखो तो हुस्न-ए-यार की जादू निगाहियां
बेहोश इक नज़र में अंजुमन तमाम

Wednesday, July 23, 2008

जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा

मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां 'ग़ालिब' ने शुरुआती ग़ज़लें 'असद' तख़ल्लुस (उपनाम) से की थीं. आज सुनिये मिर्ज़ा नौशा उर्फ़ चचा ग़ालिब उर्फ़ असदुल्ला ख़ां 'असद' की एक ग़ज़ल.

इस ग़ज़ल में उस्ताद मेहदी हसन साहब की आवाज़ जवान है और अभी उस में उम्र, उस्तादी और फ़कीरी के रंगों का गहरे उतरना बाक़ी है. यह बात दीगर है कि कुछ ही साल पहले दिए गए एक इन्टरव्यू में उस्ताद इसे अपनी गाई सर्वोत्तम रचनाओं में शुमार करते हैं.




अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

मरने की, अय दिल, और ही तदबीर कर, कि मैं
शायान-ए-दस्त-ओ-बाज़ु-ए-का़तिल नहीं रहा

वा कर दिए हैं शौक़ ने, बन्द-ए-नकाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह, अब कोई हाइल नहीं रहा

बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर असद
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा

(अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़: प्रेम के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति, शायान-ए-दस्त-ओ-बाज़ु-ए-का़तिल: क़ातिल के हाथों मारे जाने लायक, वा: खुला हुआ, बन्द-ए-नकाब-ए-हुस्न: प्रेमिका के नक़ाब के बन्धन, ग़ैर अज़ निगाह: निगाह के सिवा, हाइल: बाधा पहुंचाने वाला, बेदाद-ए-इश्क़: मोहब्बत का ज़ुल्म)

Tuesday, July 22, 2008

याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद

तब न कविता लिखने की तमीज़ थी न संगीत समझने की. बीस-बाईस की उम्र थी और मीर बाबा का दीवान सिरहाने रख कर सोने का जुनून था. उनके शेर याद हो जाया करते और सोते-जागते भीतर गूंजा करते. कहीं से किसी ने एक कैसेट ला के दे दिया. लगातार-लगातार रिवाइन्ड कर उस में से "आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद" सुनने और आख़िर में आवेश की सी हालत में आ जाने की बहुत ठोस यादें हैं. उसी क्रम में मीर बाबा की आत्मकथा 'ज़िक्र-ए-मीर' से परिचय हुआ. मीर उस में अपनी वसीयत में देखिए क्या लिख गए:

"बेटा, हमारे पास दुनिया के धन-दौलत में से तो कोई चीज़ नहीं है जो आगे चलकर तुम्हारे काम आये, लेकिन हमारी सबसे बड़ी पूंजी, जिस पर हमें गर्व है, क़ानून-ए-ज़बान (भाषा के सिद्धान्त) है, जिस पर हमारा जीवन और मान निर्भर रहा, जिसने हमें अपमान के खड्डे में से निकाल कर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया. इस दौलत के आगे हम विश्व की हुकूमत को भी तुच्छ समझते रहे. तुम को भी अपने तरके (पैतृक सम्पत्ति) में से यही दौलत देते हैं"

बहुत सालों बाद पता लगा कि यह ग़ज़ल, जो मैं आपको सुनवाने जा रहा हूं, दर असल मीर तक़ी मीर की है ही नहीं. अली सरदार ज़ाफ़री के मुताबिक इस ग़ज़ल के शेर लखनऊ के एक शायर अमीर के हैं जबकि मक़्ता संभवतः मौलाना शिबली द्वारा 'शेरुल अजम' में कहीं से ग़ाफ़िल लखनवी या मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस के नाम से नकल किया गया था.

मुझे अपनी इस खुशफ़हमी को बनाए रखना अच्छा लगता है कि बावजूद विद्वानों के अलग विचारों के, मैं इस ग़ज़ल को अब भी मीर तक़ी मीर की ही मानता हूं क्योंकि कहीं न कहीं चेतन-अचेतन में इसी ने मुझे मीर बाबा और उस्ताद मेहदी हसन का मुरीद बनाया था और उनके रास्ते अपार आनन्द के सागर तक पहुंचाया.

उस्ताद मेहदी हसन ख़ां साहब एक बार फिर से:




आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद
न रही दश्त में ख़ाली कोई जा मेरे बाद

चाक करना है इसी ग़म से गिरेबान-ए-कफ़न
कौन खोलेगा तेरे बन्द-ए-कबा तेरे बाद

वो हवाख़्वाह-ए-चमन हूं कि चमन में हर सुब्ह
पहले मैं जाता था और बाद-ए-सबा मेरे बाद

तेज़ रखना सर-ए-हर ख़ार को ऐ दश्त-ए-जुनूं
शायद आ जाए कोई आबला पा मेरे बाद

मुंह पे रख दामन-ए-गुल रोएंगे मुर्ग़ान-ए-चमन
हर रविश ख़ाक उड़ाएगी सबा मेरे बाद

बाद मरने के मेरी क़ब्र पे आया वो 'मीर'
याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद

(सज्जादः नशीं: किसी मस्जिद या मज़ार का प्रबंधन करने वाले की मौत के बाद उसकी गद्दी संभालने वाला, क़ैस: मजनूं, दश्त: जंगल, जा: जगह, चाक करना: फ़ाड़ना, गिरेबान-ए-कफ़न: कफ़न रूपी वस्त्र, बन्द-ए-कबा: वस्त्रों में लगाई जाने वाली गांठें, हवाख़्वाह-ए-चमन: बग़ीचे में हवाख़ोरी करने का शौकीन, सबा: सुबह की समीर, सर-ए-हर ख़ार: हर कांटे की नोक, दश्त-ए-जुनूं: पागलपन का जंगल, आबला: जिसके पैर में छाले पड़े हों, मुर्ग़ान-ए-चमन: उद्यान के पक्षी)

Monday, July 21, 2008

इश्क़ इक मीर भारी पत्थर है

"क़द्रदानी ने उनके कलाम को जौहर और मोतियों की निगाहों से देखा और नाम को फूलों की महक बना कर उड़ाया. हिन्दुस्तान में यह बात उन्हीं को नसीब हुई है कि मुसाफ़िर,ग़ज़लों को तोहफ़े के तौर पर शहर से शहर में ले जाते थे"

आधुनिक उर्दू कविता के प्रमुख नाम और उर्दू साहित्य के इतिहास 'आब-ए-हयात' के लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने ये शब्द ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी 'मीर' के बारे में दर्ज़ किये हैं.

"आप बे बहरा है जो मो'तक़िद-ए-मीर नहीं" अब एक ब्रह्मवाक्य का दर्ज़ा हसिल कर चुका है. उर्दू ज़ुबान को अवामी रंग देने का काम दकन में वली ने किया तो उत्तर भारत में ऐसा करने वाले मीर तक़ी थे. मीर बाबा की शायरी कई दफ़ा कन्टेन्ट और एक्स्प्रेशन के सारे स्थापित मापदण्डों से परे पहुंच जाती है और पढ़ने वाला हैरत में आ जाता है कि ऐसा हो कैसे सकता है. लेकिन कविता की यही मूलभूत ताक़त है. दो-ढाई सौ वर्षों बाद भी उनकी शायरी अपनी ख़ुशबू से तमाम जहां को अपना दीवाना बनाए हुए है.

खुदा-ए-सुख़न मीर को जब शहंशाह-ए-ग़ज़ल गाएं तो क्या होगा.

सुनिये और तय कीजिए:




देख तो दिल कि जां से उठता है
ये धुंआं सा कहां से उठता है

गोर किस दिलजले की है ये फ़लक
शोला इस सुबह यां से उठता है

यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है

बैठने कौन दे है फिर दे है उस को
जो तेरे आस्तां से उठता है

इश्क़ इक मीर भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवां से उठता है

(गोर: कब्र, फ़लक: आसमान, नातवां: कमज़ोर)

Sunday, July 20, 2008

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

मेहदी हसन साहब की जो प्यारी महफ़िल अशोक भाई ने सजाई है वह बार बार हमें ये याद दिलाती है कि एशिया उप-महाद्वीप में ख़ाँ साहब के पाये का गूलूकार न हुआ है न होगा. एक कलाकार अपने हुनर से अपने जीवन काल में ही एक घराना बन गया. शास्त्रीय संगीत के वे पंडित मुझे माफ़ करें क्योंकि उनका मानना है कि तीन पीढ़ियों तक गायकी की रिवायत होने पर ही घराने को मान्यता मिलती है.लेकिन मेहंदी हसन साहब एक अपवाद हैं क्योंकि उन्होंने ग़ज़ल गायन की एक मुकम्मिल परम्परा को ईजाद कर न जाने कितनों को ग़ज़ल सुनने का शऊर दिया है. ज़रा याद तो करें कि इस सर्वकालिक महान गायक के पहले ग़ज़ल इतनी लोकप्रिय कहाँ थी.फ़िल्मों और तवायफ़ों के कोठों की बात छोड़ दें.बिला शक आम आदमी तक ग़ज़ल को पहुँचाने में मेहदी हसन का अवदान अविस्मरणीय रहेगा.

शायरी की समझ, कम्पोज़िशन्स में क्लासिकल मौसीक़ी का बेहतरीन शुमार और गायकी में एक विलक्षण अदायगी मेहंदी हसन साहब की ख़ासियत रही है. वे ग़ज़ल के मठ हैं . वे ग़ज़ल की काशी हैं , क़ाबा हैं ख़ाकसार को कई नयी आवाज़ों को सुनने और प्रस्तुत करने का मौका गाहे-बगाहे मिलता ही रहा है और मैने महसूस किया है कि नब्बे फ़ीसद आवाज़ें मेहदी हसन घराने से मुतास्सिर हैं .और इसमें बुरा भी क्या है. सुनकारी की तमीज़ को निखारने में मेहदी हसन साहब का एक बड़ा एहसान है हम पर.ग़ज़ल पर कान देने और दाद देने का हुनर उन्हीं से तो पाया है हमने.तक़रीबन आधी सदी तक अपनी मीठी आवाज़ के
ज़रिये मेहदी हसन साहब ने न जाने कितने ग़ज़ल मुरीद पैदा कर दिये हैं . शायरों की बात को तरन्नुम की पैरहन देकर इस महान गूलूकार ने क्या क्या करिश्मे किये हैं उससे पूरी दुनिया वाक़िफ़ है हमारी क़लम में वो ताक़त कहाँ जो उनके किये का गुणगान कर सके. मजमुओं से ग़ज़ल जब मेहंदी हसन के कंठ में आ समाती है तो जैसे उसका कायाकल्प हो जाता है.

ग़ज़ल पर अपनी आवाज़ का वर्क़ चढ़ा कर ख़ाँ साहब किसी भी रचना को अमर करने का काम अंजाम देते आए हैं और हम सब सुनने वाले स्तब्ध से उस पूरे युग के साक्षी बनने के अलावा कर भी क्या सकते हैं और हमारी औक़ात भी क्या है.

मेहदी हसन साहब और अहमद फ़राज़ साहब की कारीगरी का बेजोड़ नमूना पेश-ए-ख़िदमत है..मुलाहिज़ा फ़रमाएं और स्वर की छोटी छोटी हरक़तों से एक ग़ज़ल को रोशन होते सुनें.एक ख़ास बात ...मेहंदी हसन साहब ने अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबो (में) मिले गाते वक़्त इस (में) पर मौन हो गए हैं ...अब इस मौन से बहर छोटी होने के ख़तरे को उन्होने गायकी से कैसे पाटा है आप ही सुन कर महसूस कीजिये. मतला दर मतला ग़ज़ल जवान कैसे होती है इस बंदिश में तलाशिये.

और हाँ ध्यान दीजियेगा कि अंतरे में (मतले या मुखड़े के बाद का शेर)ख़ाँ साहब आवाज़ को एक ऐसी परवाज़ देते हैं जहाँ उनका स्वर उनके पिच से बाहर जा रहा है तो क्या मेहंदी हसन साहब को अपने गले की हद मालूम नहीं ? जी नहीं जनाब,स्वर को बेसाख़्ता परेशान करना इस ग़ज़ल की ज़रूरत है जो गाने वाले की बैचैनी का इज़हार कर रही है,वो बैचैनी जो शायर ने लिखते वक़्त महसूस की है.पिच के बाहर जाने के बहाने मेहदी हसन सुनने वाले का राब्ता बनाना चाह रहे हैं और बनाते हैं कई ग़ज़लों में, ज़रूरत सिर्फ़ महसूस करने की है.तो ग़ज़ल गायकी के इस उस्ताद की पेशकश पर किसी तरह का शुबहा न करें बस डूब भर जाएँ.

ख़ुसरो ने कहा भी तो है न...जो उतरा सो डूब गया और जो डूबा सो पार.




अब के हम बिछड़े तो शायद कहीं ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इन्सां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

अब न वो मैं हूं न तू है न वो माज़ी है फ़राज़
जैसे दो साये तमन्‍ना के सराबों में मिलें

(हिजाब: परदा, ख़राबा: मरुमारीचिका, माज़ी: बीता हुआ समय)

राग मालकौंस और सोहनी का मिलाप: डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला

लगातार बारिशें हैं मेरे नगर में कई-कई दिनों से.

सब कुछ गीला-सीला.

हरा-सलेटी.

भावनात्मक रूप जुलाई और अगस्त मेरे सबसे प्यारे और उतने ही कष्टकारी महीने होते हैं. उस्ताद मेहदी हसन साहब की संगत में सालों - साल इन महीनों को काटने की आदत अब पुरानी हो चुकी है. नोस्टैज्लिया शब्द इस क़दर घिसा लगने लगता है उस अहसास के आगे जो, भाई संजय पटेल के शब्दों में उस्ताद के आगे नतमस्तक बैठे रहने में महसूस होता है.

अहमद नदीम क़ासमी (नवम्बर 20, 1916 – जुलाई 10, 2006) की ग़ज़ल पेश है:




क्या भला मुझ को परखने का नतीज़ा निकला
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला

तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला

जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला

तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला

(तिश्नगी: प्यास)

रंग बिरंगे तन वालों का, सच ये है मन खाली है

'कहना उसे' से उस्ताद मेहदी हसन ख़ान साहब की आवाज़ में फ़रहत शहज़ाद की एक और ग़ज़ल:



सब के दिल में रहता हूं पर दिल का आंगन ख़ाली है
खु़शियां बांट रहा हूं जग में, अपना दामन ख़ाली है

गुल रुत आई, कलियां चटखीं, पत्ती-पत्ती मुसकाई
पर इक भौंरा न होने से गुलशन -गुलशन ख़ाली है

रंगों का फ़ुक दाम नहीं हर चन्द यहां पर जाने क्यूं
रंग बिरंगे तन वालों का, सच ये है मन खाली है

दर-दर की ठुकराई हुई ए मेहबूबा-ए-तनहाई
आ मिल जुल कर रह लें इस में, दिल का नशेमन ख़ाली है

(*आज लाइफ़लॉगर दिक्कत कर रहा है. उस के चालू होते ही प्लेयर बदल दिया जाएगा)

Friday, July 18, 2008

तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे

अब आप ही बताइए, इस ग़ज़ल के लिए क्या प्रस्तावना बांधी जाए?

अपने-अपने तरीके से नॉस्टैल्जिया महसूस करते हुए सुनें उस्ताद की यह कमाल रचना. क़लाम 'हफ़ीज़' जालन्धरी साहब का है:




मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे

ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे

अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
तेरी फ़ुरकत के सदमे कम न होंगे

दिलों की उलझनें बढ़ती रहेंगी
अगर कुछ मशविरे बाहम न होंगे

हफ़ीज़ उनसे मैं जितना बदगुमां हूं
वो मुझ से इस क़दर बरहम न होंगे

(फ़ुरकत: विरह, बाहम: आपस में)

Thursday, July 17, 2008

मैं उसे जितना समेटूं, वो बिखरता जाए

एह एम वी ने क़रीब बीस साल पहले मेहदी हसन साहब की लाइव कन्सर्ट का एक डबल कैसेट अल्बम जारी किया था: 'दरबार-ए-ग़ज़ल'. उस में पहली ही ग़ज़ल थी आलम ताब तश्ना की 'वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए'. बहुत अलग अन्दाज़ था उस पूरी अल्बम की ग़ज़लों का, गो यह बात अलग है कि उसकी ज़्यादातर रचनाओं को वह शोहरत हासिल नहीं हुई. हसन साहब की आवाज़ में शास्त्रीय संगीत के पेंच सुलझते चले जाते और अपने साथ बहुत-बहुत दूर तलक बहा ले जाया करते थे.

कुछेक सालों बाद बांग्लादेश के मेरे बेहद अज़ीज़ संगीतकार मित्र ज़ुबैर ने वह अल्बम ज़बरदस्ती मुझसे हथिया लिया था. उसका कोई अफ़सोस नहीं मुझे क्योंकि ज़ुबैर ने कई-कई मर्तबा उन्हीं ग़ज़लों को अपनी मख़मल आवाज़ में मुझे सुनाया. ज़ुबैर के चले जाने के कुछ सालों बाद तक मुझे इस अल्बम की याद आती रही ख़ास तौर पर उस ग़ज़ल की जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया. यह संग्रह बहुत खोजने पर कहीं मिल भी न सका. कुछ माह पहले एक मित्र की गाड़ी में यूं ही बज रही वाहियात चीज़ों के बीच अचानक यही ग़ज़ल बजने लगी. बीस रुपए में मेरे दोस्त ने दिल्ली-नैनीताल राजमार्ग स्थित किसी ढाबे से सटे खोखे से गाड़ी में समय काटने के उद्देश्य से 'रंगीन गजल' शीर्षक यह पायरेटेड सीडी खरीदी थी. नीम मलबूस हसीनाओं की नुमाइशें लगाता उस सीडी का आवरण यहां प्रस्तुत करने लायक नहीं अलबत्ता आलम ताब तश्ना साहब की ग़ज़ल इस जगह पेश किए जाने की सलाहियत ज़रूर रखती है. ग़ज़ल का यह संस्करण 'दरबार-ए-ग़ज़ल' वाले से थोड़ा सा मुख़्तलिफ़ है लेकिन है लाइव कन्सर्ट का हिस्सा ही.

सुनें:




वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
दिल वो ज़ालिम कि उसी शख़्स पे मरता जाए

मेरे पहलू में वो आया भी तो ख़ुशबू की तरह
मैं उसे जितना समेटूं, वो बिखरता जाए

खुलते जाएं जो तेरे बन्द-ए-कबा ज़ुल्फ़ के साथ
रंग पैराहन-ए-शब और निखरता जाए

इश्क़ की नर्म निगाही से हिना हों रुख़सार
हुस्न वो हुस्न जो देखे से निखरता जाए

क्यों न हम उसको दिल-ओ-जान से चाहें 'तश्ना'
वो जो एक दुश्मन-ए-जां प्यार भी करता जाए

(अहद-ए-मोहब्बत: प्यार में किये गए वायदे, पैराहन-ए-शब: रात्रि के वस्त्र, हिना हों रुख़सार: गालों पर लाली छा जाए)