"फ़ैज़" साहब की ग़ज़ल हो और आबिदा परवीन की आवाज़, तो माहौल कुछ अलग-सा बन जाता है. पेश है एक ग़ज़ल ...........
आबिदा परवीन - फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"
"नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही"
नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
न तन में खून फ़राहम है न अश्क आंखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही
किसी तरह तो जमे बज़्म मैक़दे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही
गर इंतज़ार कठिन है तो जब तक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ्तगू ही सही
दयार-ए-गै़र में मरहम अगर नहीं कोई
तो "फैज़" ज़िक्र-ए-वतन अपने रूबरू ही सही
'राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा’ : मीना कुमारी की याद
में
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मीना आपा के भीतर कोई चंचल-शोख़ और मन की उड़ान भरती कोई बेफिक्र लड़की रही
होगी...शायद कभी...क्या पता।
पर उनके जीवन पर उदासी का ग्रहण इतना गहरा था कि व...
2 years ago
7 comments:
guftgu se time pass ho jata hai or yad bhee nahin satati
दयार-ए-गै़र में मरहम अगर नहीं कोई
तो "फैज़" ज़िक्र-ए-वतन अपने रूबरू ही सही
kya baat hai ! waah
सुना ,
अब उठ रहा हूं और काम पर कूच करूं ,ताजादम होकर !!
नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
गर इंतज़ार कठिन है तो जब तक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ्तगू ही सही
इस खुबसूरत गजल को सुनवाने का शुक्रिया
वाह बहुत सुन्दर।
किसी तरह तो जमे बज़्म मैक़दे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही।
शानदार। इस खूबसूरत गज़लके बाद 'बादा-ओ-साग़र 'की जरूरत ही क्या है।
मेरी पसंदीदा ग़ज़ल...एक अजब आलम तारी हो जाता है इसे सुन कर...लगातार सुनते रहने को दिल चाहता है। इसकी पहचान फ़ैज़ साहब से नहीं आबिदा जी से है।
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