उस्ताद मेहंदी हसन को क्या कहेंगे आप ? एक गुलूकार ? बस ! मैं कहना चाहूँगा ग़ज़ल का एक ऐसा मेयार जहाँ पहुँचना नामुमकिन ही है. वे ग़ज़ल गायकी का एक युग है.गरज़ कि उनके बाद सब पीछे छूटा सा लगता है. शायरी,मूसीक़ी,गायकी. सब प्लास्टिक के फूल लगते हैं ....सजावटी से. न ख़ालिस महक , न उजले रंग.कुछ मित्र कहते हैं मैं बात को अतिरंजित करता हूँ...तो ठीक है बता दीजिये उसी दौर का ऐसा बेजोड़ गायक जो मेहंदी हसन साहब के पाये का हो. अब इसी ग़ज़ल को लीजिये...कितने गुलूकारों ने आज़माया है इसे लेकिन ख़ाँ साहब के गाये का असर है कि मिटने का नाम ही नहीं लेता.तक़रीबन तीन दिन ख़ाकसार को मेहंदी हसन साहब की ख़िदमत का मौक़ा मिला था. हाय ! क्या लम्हे थे वो. कैसी बेसाख़्ता सादगी, मर जाने को जी चाहे.राजस्थानी में बतियाते रहे थे हम. गाने के बारे में,रियाज़ के मामले में,शायरी और शायरों के मामले में.अहमद फ़राज़ और फ़ैज़ को कितना चाहते हैं ख़ाँ साहब क्या बताऊँ.कहने लगे इन दोनो शोअरा की ग़ज़ल पढ़ते ही ऐसा लगता है कि झट इन्हें किसी मुकम्मिल धुन में बांध दूँ.
बातचीत का अंदाज़ वैसा ही सॉफ़्ट जो गाने में सुनाई देता है.क्या कहिये इस अंदाज़ को कि गाना भी बनावटी नहीं और बोलना भी .चिकन का कुर्ता पहना हुआ है , होंठ पान से लाल हुए जाते हैं,उंगलियों में सिगरेट दबी हुई है और बेतकल्लुफ़ी से होटल के कमरे में बिस्तर पर लेटे हैं.पन्द्रह से ज़्यादा बरस का समय हो गया ; आज जब याद किया जाता हूँ तो लगता है उनसे अभी भी उसी होटल में रूबरू हूँ.यही होता है अज़ीम शख़्सीयतों का जादू. कौन सी ग़ज़ल अच्छी नहीं लगती आपको ?तो बोले जिसमें सब कुछ उघाड़ कर कह दिया हो.बेटे ग़ज़ल की सबसे बड़ी ताक़त है उसका सस्पैंस.जब एक मिसरा पढ़ दिया तो दूसरा क्या होगा ये जानने के लिये दिल मचल मचल जाए सामइन का , समझ लो हिट हो गई वह ग़ज़ल .कैसे तय करते हैं कि फ़लाँ ग़ज़ल लेना है या कैसे चुनते हैं आप कि ये ग़ज़ल आपके गले के माफ़िक रहेगी ...तो बोले एक ग़ज़ल को कम से कम चार पाँच रागों में बांध देखता हूँ....सब जगह माकूल बैठी तो लगता है ये है मेरे काम की. और दूसरी बात ये कि अंदाज़ेबयाँ जुदा होना ज़रूरी है शायर का. कितना अलग एंगल ले पाता है कोई शायर अपनी बात में वह मेरे लिये बहुत अहमियत रखता है.शायर कितना नामचीन है ये ज़रूरी नहीं मेरे लिये...अल्फ़ाज़ों की सादगी और उम्दा कहन ज़रूरी है.
वादा किया था अशोक भाई से कभी कि यादों में क़ैद मेहंदी हसन साहब से उस मुलाक़ात को याद कर कर के लिखता जाऊंगा....न जाने क्यूं पत्ता पत्ता बूटा बूटा सुनते और आपको सुनाने के लिये मन बनाते बनाते लिखने का मन बन गया.आइये अब ग़ज़ल सुनते हैं क्योंकि मेरी बात तो ख़ाँ साहब के गाने जितनी सुरीली नहीं न!
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
चारागरी बीमारि-ए-दिल की रस्मे-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वरना दिलबर-ए-नादां भी इस दर्द का चारा जाने है
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत, एक से वाक़िफ़ इनमें नहीं
और तो सब कुछ तंज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है
-मीर तक़ी 'मीर'
चारागरी: चिकित्सा
रस्मे-ए-शहर-ए-हुस्न: सौन्दर्य के नगर की परम्परा
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत: प्यार, मोहब्बत, मौज मज़े आदि
तंज़-ओ-कनाया: व्यंग्य और पहेली
रम्ज़-ओ-इशारा: रहस्य और संकेत
'राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा’ : मीना कुमारी की याद
में
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मीना आपा के भीतर कोई चंचल-शोख़ और मन की उड़ान भरती कोई बेफिक्र लड़की रही
होगी...शायद कभी...क्या पता।
पर उनके जीवन पर उदासी का ग्रहण इतना गहरा था कि व...
2 years ago
20 comments:
thanks for such wonderful artical"
Regards
नही भाई आपकी बात भी कम सुरीली नही, सुबह सुबह मूड को तरोताजा करने के लिए thanks
बहुत खूबसूरत टिप्पणी, पूरे मन से लिखी हुई. ठीक वैसी ही जैसी खां साहब की गाई हुई यह गज़ल है. शुक्रिया.
mausam/mun maafiq gazal sunva di aapney....bahut shukriyaa..din bhar suni jaayegi
बहुत ही अच्छा लगा यह लेख ..
संजयभाई,
यहां तो नहीं सुन पाया लेकिन ये गजल कई बार सुनी है और हर बार एक अलग मजा देती है।
ख़ान साहब की यादों में पगा बढ़िया आलेख और ग़ज़ल के तो क्या कहिये.
गुलाम अली की आवाज़ में सुनी है यह गज़ल और विनोद राठौर की आवाज़ में भी. मेहदी हसन का अन्दाज़ सबसे न्यारा है. बहुत धन्यवाद.
बेहतरीन...लगे रहिये..सुनाते रहिये.बहुत आभार.
...आज पहली बार आपके ब्लौग पर आया और झूम उठा हूँ.बस झूमाते रहिये यूँ ही हम स्ब को.आपका लाख-लाख शुक्र.मेहदी हसन साब की तो इबादत हम बचपन से करते हैं.
प्यार भरे दो शर्मिले नैन....
आपका अंदाज़े बयां और सलीक़ा , कौन कहता है कि सुरीलापन नहीं. दोनों का मकाम अलग, मगर असर एक.
अल्फ़ाज़ों की सादगी,उम्दा कहन..
...बाग़ तो सारा जाने है;
वाह, इस ग़ज़ल का कोई जोड़ नहीं। और हां आपके लिखे का भी संजय भाई।
गुलाम अली की आवाज़ में सुनी है यह गज़ल और विनोद राठौर की आवाज़ में भी. मेहदी हसन का अन्दाज़ सबसे न्यारा है. बहुत धन्यवाद.
गिरीशभाई.....आभार आपकी प्रेमपूर्ण टिप्पणी के लिये. लेकिन एक भावनात्मक नाराज़ी...मेहंदी हसन की बात चल रही तो उस पाये पर सिर्फ़ और सिर्फ़ तीन दीगर नाम ही सुहाते हैं,कुन्दनलाल सहगल,तलत महमूद और बेगम अख़्तर.
आप मेरा इशारा समझ गये हैं न !
ये तीनों तो अवश्य .
गुलाम अली साहब क्यों नही ? कोई ग़ूढ बात?
सवाल तो फ़िर जगजीतसिंह के नाम पर भी उट्ठेगा.जो पाया सहगल,तलत,बेगम अख़्तर,मेहंदी हसन का है वह निर्विवाद रूप से इन्हीं का है.सी.के.नायडू,मुशाक़ अली,सुनील गावसकर और वीनू मनकड़ के साथ सचिन,राहुल और सौरव को कैसे बैठाया जाए ? चार नाम ग़ज़ल के पुरोधा हैं.बहस में न जाएँ...सुख़नसाज़ पर आने वाले दर्दी इस बात को ठीक से समझते हैं.
दिलीप कवठेकर से मुख़ातिब है मेरा ये कमेंट.
हुजूर ! काश आपने आज ३ अक्टू.को विविध भारती का विशेश प्रसारण सुना होता. गुलाम अली जी बोल रहे थे. कहा कि पत्ता पत्ता बूटा बूटा वाली मेरी कम्पोजिशन सुनाता हूँ पर ध्यान रहे मेहंदी भाई की बराबरी तो मै नहीं कर पाऊंगा. ये उनकी विनम्रता भी थी और हकीकत भी.मेहंदी हसन,तलत साहब,बेगम अखतर ये सारे लोग गजल की दुनिया की मीनारों की नींव हैं इस मीनार पर आज गुलाम अली,तलत अजीज,पंकज उदास,जगजीतसिंह जैसे कई सितारों की रोशनी जगमगा रही है.ध्यान रहे जिन महान नामो का जिकर ऊपर हुआ है (जो नींव का पत्त्थर हैं)उन्होने गजल के लिये अपनी जिन्दगी कुरबान की है जबकि आज कल के गजलिये गजल को मार्केट कर रहे हैं.
बहस इस लिये नहीं की बात गलत थी. सकारात्मकता का तकाज़ा यही है, कि टिप्पणीकार के मन में मात्र तीनों का नाम देने के पीछे का तर्क भी लगे हाथ पता लग जाये तो और भी लुत्फ़ आये बात में. खुदाया, इसके और हिज़्ज़े ना करें.
वैसे, मन को जो सुहाये आल्हादित करे, वह सभी ग्राह्य है, स्वागतयोग्य है. बहस तब जब तुलना हो, या चुनना हो, तो वहां खां साहब के सामने तो कोई नही है.
मगर संगीत ही ऐसी विधा है, जहां जब एक जीतता है, तो दूसरा हारता नही.(Unlike sports)
हमें कोई ग़म नही था ग़में आशि़की़ से पहले,
ना थी दुश्मनी किसी से तेरी दोस्ती से पहले..
चूँकि मैं बचपन से ही गाने का सौकीन हूँ तो वाजिब है मुझे आपका ये कोल्ल्क्शन नायब लगा . आपका तहे दिल से शुक्रिया.
रेगार्ड्स
अर्श
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
आप कहोगे जैसा मुझको, वैसा ही मैं लिख दूंगा
मोती मुझको दे देना तुम उनकी जड़ दूंगा माला
इश्क न जाने जात -पात को इश्क न जाने उमर दराज़
यह तो रब का नूर है यारो कौन इसे है जान सका
तू फरिस्ता है, तू ही हूर है ना,
तुझको देखा, खुदा को देख लिया,
तुझमे ऐसा नूर है ना.....
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