फैज़ अहमद "फैज़" ..... बेग़म आबिदा परवीन .........
अब इस से आगे मैं क्या कहूँ ?? ( इस से इलावा कि बात शाम की है.....)
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ, आई और आ के टल गई
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शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ, आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया, जाँ थी कि फिर संभल गई
बज़्म-ए-ख़याल में तेरे, हुस्न की शम्मा जल गई
दर्द का चाँद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गई
जब तुझे याद कर लिया, सुब्ह महक महक उठी
जब तेरा ग़म जगा लिया, रात मचल मचल गई
दिल से तो हर मुआमिला, कर के चले थे साफ़ हम
कहने में उन के सामने, बात बदल बदल गई
आख़िर-ए-शब के हमसफ़र, "फैज़" न जाने क्या हुए
रह गई किस जगह सबा, सुब्ह किधर निकल गई
'राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा’ : मीना कुमारी की याद
में
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मीना आपा के भीतर कोई चंचल-शोख़ और मन की उड़ान भरती कोई बेफिक्र लड़की रही
होगी...शायद कभी...क्या पता।
पर उनके जीवन पर उदासी का ग्रहण इतना गहरा था कि व...
2 years ago
6 comments:
चित्त प्रसन्न हुआ ।
अफ़लातून
मित्र,
आबिदा आपा को सुनवाकर आपने तो निहाल कर दिया !!!!!!!!!!!!!!!
बल्ले - बल्ले
dil tha ki fir bahal gayaa: jaan thi ki phir sambhal gaii....
मीत दा.
इस ग़ज़ल का असर शायरी में तो है ही , आबिदा आपा ने कम्पोज़िशन को भैरवी में बांधा है सो वह भी करिश्मा कर रही है. इस तरह से कई एलिमेंट हैं जो किसी पेशकश को मुकम्मिल करते हैं.
सच दिल बहला गए आप
और
मचल-सी भी गयी तबीयत !
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लाज़वाब पेशकश.
शुक्रिया
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बेहतरीन- यह ग़ज़ल तो पूरा दिन महका सकती है|
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