Saturday, August 30, 2008

अल्लाह करे के तुम कभी ऐसा न कर सको

ग़ज़ल गायकी की जो जागीरदारी मोहतरमा फ़रीदा ख़ानम को मिली है वह शीरीं भी है और पुरकशिश भी. वे जब गा रही हों तो दिल-दिमाग़ मे एक ऐसी ख़ूशबू तारी हो जाती है कि लगता है इस ग़ज़ल को रिवाइंड कर कर के सुनिये या निकल पड़िये एक ऐसी यायावरी पर जहाँ आपको कोई पहचानता न हो और फ़रीदा आपा की आवाज़ आपको बार बार हाँट करती रहे. यक़ीन न हो तो ये ग़ज़ल सुनिये...

3 comments:

शायदा said...

अल्‍लाह करे जहां को मेरी याद भूल जाए,
अल्‍लाह करे के तुम कभी ऐसा न कर सको।
संजय भाई बहुत ख़ूब चुनकर लाए आप....बहूत बढि़या।

Anwar Qureshi said...

बहुत खूब ..बधाई ..

महेन said...

वाह संजय भाई, क्या ग़ज़ल है। फ़रीदा आपा तो वैसे भी मेरी पसंदीदा ग़ज़ल-गायिका हैं। अफ़सोस मेरे पास ये ग़ज़ल नहीं है। :(