मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां 'ग़ालिब' ने शुरुआती ग़ज़लें 'असद' तख़ल्लुस (उपनाम) से की थीं. आज सुनिये मिर्ज़ा नौशा उर्फ़ चचा ग़ालिब उर्फ़ असदुल्ला ख़ां 'असद' की एक ग़ज़ल.
इस ग़ज़ल में उस्ताद मेहदी हसन साहब की आवाज़ जवान है और अभी उस में उम्र, उस्तादी और फ़कीरी के रंगों का गहरे उतरना बाक़ी है. यह बात दीगर है कि कुछ ही साल पहले दिए गए एक इन्टरव्यू में उस्ताद इसे अपनी गाई सर्वोत्तम रचनाओं में शुमार करते हैं.
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
मरने की, अय दिल, और ही तदबीर कर, कि मैं
शायान-ए-दस्त-ओ-बाज़ु-ए-का़तिल नहीं रहा
वा कर दिए हैं शौक़ ने, बन्द-ए-नकाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह, अब कोई हाइल नहीं रहा
बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर असद
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा
(अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़: प्रेम के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति, शायान-ए-दस्त-ओ-बाज़ु-ए-का़तिल: क़ातिल के हाथों मारे जाने लायक, वा: खुला हुआ, बन्द-ए-नकाब-ए-हुस्न: प्रेमिका के नक़ाब के बन्धन, ग़ैर अज़ निगाह: निगाह के सिवा, हाइल: बाधा पहुंचाने वाला, बेदाद-ए-इश्क़: मोहब्बत का ज़ुल्म)
'राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा’ : मीना कुमारी की याद
में
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मीना आपा के भीतर कोई चंचल-शोख़ और मन की उड़ान भरती कोई बेफिक्र लड़की रही
होगी...शायद कभी...क्या पता।
पर उनके जीवन पर उदासी का ग्रहण इतना गहरा था कि व...
2 years ago
3 comments:
अशोक भाई क्या कहने हैं,बहुत बढिया,गज़ब संयोग है आज कल हम सभी मेहदी साहब को बहुत याद कर रहे है......मैने भी कुछ लिखा है..ज़रा बताइयेगा कैसा लगा
बढिया गजल सुनवानें के लिए आभार।
आनन्द आ गया. आभार.
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