रेशमा आपा का संग्रह 'दर्द' मेरे दिल के बहुत नज़दीक है. इस अलबम से मेरा परिचय पहली बार उनके असली रूप से हुआ. एक तो हमारे छोटे से कस्बे में उस मिजाज़ के कैसेट मिलते ही नहीं थे. हद से हद कभी कभी गु़लाम अली या मेहदी हसन साहब हाथ लग जाते थे. ज़्यादातर अच्छा संगीत हमें दोस्तों के दिल्ली-लखनऊ जैसे बड़े शहरों से आये मित्र-परिचितों के माध्यम से मिला करता था.हल्द्वानी जैसे निहायत कलाहीन नगर में रेशमा का यह कैसेट मिलना जैसे किसी चमत्कार की तरह घटा. कई सालों तक उसे लगातार-लगातार सुना गया और पांचेक साल पहले किन्हीं पारकर साहब की कृपा का भागी बन गया.
आज सुबह से इंशा जी की किताब पढ़ रहा था. उसमें 'देख हमारे माथे पर' ग़ज़ल वाले पन्ने पर पहुंचते ही दिल को रेशमा आपा की आवाज़ में इस ग़ज़ल की बेतरह याद उठना शुरू हुई.
कुछ दिन पहले अपने मित्र सिद्धेश्वर बाबू ने इस अलबम का ज़िक्र किया था. उम्मीद के साथ उन्हें फ़ोन लगाया पर उनके वाले कैसेट को भी पारकर साहब की नज़र लग चुकी थी.ज़रा देर बाद सिद्धेश्वर का फ़ोन आया कि मेल चैक करूं. अपने बाऊजी ने जाने कहां कहां की मशक्कत के बाद यह ग़ज़ल बाकायदा एम पी ३ फ़ॉर्मेट में बना कर मुझे मेल कर दी थी.
इस प्रिय गुरुवत मित्र को धन्यवाद कहते हुए आपकी सेवा में पेश है इब्न-ए-इंशा साहब की ग़ज़ल. इब्ने-ए-इंशा जी की एक नज़्म ग़ुलाम अली की और एक ग़ज़ल उस्ताद अमानत अली ख़ान की आवाज़ में आप पहले सुन ही चुके हैं:
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियां
हम से है तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियां
अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तेरा उसूल मियां
हम क्यों छोड़ें इन गलियों के फेरों का मामूल मियां
ये तो कहो कभी इश्क़ किया है, जग में हुए हो रुसवा भी
इस के सिवा हम कुछ भी न पूछें, बाक़ी बात फ़िज़ूल मियां
अब तो हमें मंज़ूर है ये भी, शहर से निकलें रुसवा हों
तुझ को देखा, बातें कर लीं, मेहनत हुई वसूल मियां
(इस ग़ज़ल का मक़्ता बहुत सुन्दर है, जो यहां नहीं गाया गया:
इंशा जी क्या उज्र है तुमको, नक़्द-ए-दिल-ओ-जां नज़्र करो
रूपनगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियां
दश्त-ए-तलब: इच्छा का जंगल, मामूल: दिनचर्या, नाका: चुंगी, महसूल: चुंगी पर वसूला जाने वाला टैक्स.
एक निवेदन: यदि आप में से किसी को मालूम हो कि मेराज-ए-ग़ज़ल में ग़ुलाम अली और आशा भोंसले की गाई 'फिर सावन रुत की पवन चली, तुम याद आए' किसने लिखी है, तो बताने का कष्ट ज़रूर करें. बन्दा अहसानमन्द रहेगा.)
'राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा’ : मीना कुमारी की याद
में
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मीना आपा के भीतर कोई चंचल-शोख़ और मन की उड़ान भरती कोई बेफिक्र लड़की रही
होगी...शायद कभी...क्या पता।
पर उनके जीवन पर उदासी का ग्रहण इतना गहरा था कि व...
2 years ago
10 comments:
जय हो!
आपने तो बाबूजी 'बैठा दिया पलंग पर मुझे खाट से उठा के'आपकी यह अच्छाई वाकई काबिले तारीफ़ है.
'पारकर' साहबों की वजह से ही तो संगीत की हुड़्क जोर मार रही है.
रेशमा आपा की आवाज -वल्लाह!
और इंशा साहब का कलाम -क्या कहने ,दिल के बेहद करीब.
'फिर सावन रुत की पवन चली तुम याद आये' तो अपने नासिर काज़मी साहब का लिखा हुआ है. लो जी पेश है गीत की 'लैनां'-
फिर सावन रुत की पवन चली तुम याद आये
फिर पत्तों की पाजेब बजी तुम याद आये
फिर कूँजें बोलीं घास के हरे समुन्दर में
रुत आई पीले फूलों की तुम याद आये
पहले तो मैं चीख के रोया और फिर हँसने लगा
बादल गरजा बिजली चमकी तुम याद आये
फिर कागा बोला घर के सूने आँगन में
फिर अमृत रस की बूँद पड़ी तुम याद आये
दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया रहा
जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आये
बाकी सब चंगा!
बहुत खूब। मजा आ गया। बडी प्यारी गजल। सुनवाने के लिए धन्यवाद।
सिद्धेश्वर बाबू, ऐसे ही थोड़े ही आप के मुरीद हैं हम. बहुत बहुत शुक्रिया नाचीज़ की मदद करने का.
अशोकजी,
आंख बन्द करके बहुत देर तक सुनता रहा और रेशमाजी की आवाज को महसूस करता रहा । आपका और सिद्धेश्वर जी को बहुत धन्यवाद ।
अशोक भाई,
मक़्ता जैसे आपने लिखा है बहर से ख़ारिज लगता है. ज़रा चेक कर लें.
इंशा जी क्या उज्र है तुमको, अब नक़्द-ए-दिल-ओ-जां नज़्र करो
रूपनगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियां
पहले मिसरे में एकाध लफ़्ज ज़्यादा है.
'फिर सावन रुत' के शायर का नाम तो पता लग ही चुका है. इसके बारे में मैंने भी एक पोस्ट की थी, फ़ुरसत हो तो देखिएगा. शायर का नाम भी दिया हुआ है.
सच कहें...आनंद आ गया...बस इसके आगे और कुछ कहने को कहाँ बचता है....
नीरज
सच कहें...आनंद आ गया...बस इसके आगे और कुछ कहने को कहाँ बचता है....
अगर आपने रेखा भरद्वाज की आवाज में गुलज़ार साहेब का लिखा अल्बम जिसमें उन्होंने सूफी कलाम गाये हैं "इशका -इशका" नहीं सुना है तो जरूर सुनियेगा.
नीरज
भाई विनय जी
आपने सही फ़रमाया. मक़्ते में 'अब' शब्द ज़्यादा होने की वजह से शेर बहर से भटक गया था.
ठीक कर दिया है!
धन्यवाद!
फिर सावन रुत की पवन चली तुम याद आये
फिर पत्तों की पाज़ेब बजी तुम याद आये
फिर कुँजें बोलीं घास के हरे समन्दर में
रुत आई पीले फूलों की तुम याद आये
फिर कागा बोला घर के सूने आँगन में
फिर अम्रत रस की बूँद पड़ी तुम याद आये
पहले तो मैं चीख़ के रोया फिर हँसने लगा
बादल गरजा बिजली चमकी तुम याद आये
दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया रहा
जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आये
(नासिर काज़मी)
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