Sunday, July 20, 2008

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

मेहदी हसन साहब की जो प्यारी महफ़िल अशोक भाई ने सजाई है वह बार बार हमें ये याद दिलाती है कि एशिया उप-महाद्वीप में ख़ाँ साहब के पाये का गूलूकार न हुआ है न होगा. एक कलाकार अपने हुनर से अपने जीवन काल में ही एक घराना बन गया. शास्त्रीय संगीत के वे पंडित मुझे माफ़ करें क्योंकि उनका मानना है कि तीन पीढ़ियों तक गायकी की रिवायत होने पर ही घराने को मान्यता मिलती है.लेकिन मेहंदी हसन साहब एक अपवाद हैं क्योंकि उन्होंने ग़ज़ल गायन की एक मुकम्मिल परम्परा को ईजाद कर न जाने कितनों को ग़ज़ल सुनने का शऊर दिया है. ज़रा याद तो करें कि इस सर्वकालिक महान गायक के पहले ग़ज़ल इतनी लोकप्रिय कहाँ थी.फ़िल्मों और तवायफ़ों के कोठों की बात छोड़ दें.बिला शक आम आदमी तक ग़ज़ल को पहुँचाने में मेहदी हसन का अवदान अविस्मरणीय रहेगा.

शायरी की समझ, कम्पोज़िशन्स में क्लासिकल मौसीक़ी का बेहतरीन शुमार और गायकी में एक विलक्षण अदायगी मेहंदी हसन साहब की ख़ासियत रही है. वे ग़ज़ल के मठ हैं . वे ग़ज़ल की काशी हैं , क़ाबा हैं ख़ाकसार को कई नयी आवाज़ों को सुनने और प्रस्तुत करने का मौका गाहे-बगाहे मिलता ही रहा है और मैने महसूस किया है कि नब्बे फ़ीसद आवाज़ें मेहदी हसन घराने से मुतास्सिर हैं .और इसमें बुरा भी क्या है. सुनकारी की तमीज़ को निखारने में मेहदी हसन साहब का एक बड़ा एहसान है हम पर.ग़ज़ल पर कान देने और दाद देने का हुनर उन्हीं से तो पाया है हमने.तक़रीबन आधी सदी तक अपनी मीठी आवाज़ के
ज़रिये मेहदी हसन साहब ने न जाने कितने ग़ज़ल मुरीद पैदा कर दिये हैं . शायरों की बात को तरन्नुम की पैरहन देकर इस महान गूलूकार ने क्या क्या करिश्मे किये हैं उससे पूरी दुनिया वाक़िफ़ है हमारी क़लम में वो ताक़त कहाँ जो उनके किये का गुणगान कर सके. मजमुओं से ग़ज़ल जब मेहंदी हसन के कंठ में आ समाती है तो जैसे उसका कायाकल्प हो जाता है.

ग़ज़ल पर अपनी आवाज़ का वर्क़ चढ़ा कर ख़ाँ साहब किसी भी रचना को अमर करने का काम अंजाम देते आए हैं और हम सब सुनने वाले स्तब्ध से उस पूरे युग के साक्षी बनने के अलावा कर भी क्या सकते हैं और हमारी औक़ात भी क्या है.

मेहदी हसन साहब और अहमद फ़राज़ साहब की कारीगरी का बेजोड़ नमूना पेश-ए-ख़िदमत है..मुलाहिज़ा फ़रमाएं और स्वर की छोटी छोटी हरक़तों से एक ग़ज़ल को रोशन होते सुनें.एक ख़ास बात ...मेहंदी हसन साहब ने अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबो (में) मिले गाते वक़्त इस (में) पर मौन हो गए हैं ...अब इस मौन से बहर छोटी होने के ख़तरे को उन्होने गायकी से कैसे पाटा है आप ही सुन कर महसूस कीजिये. मतला दर मतला ग़ज़ल जवान कैसे होती है इस बंदिश में तलाशिये.

और हाँ ध्यान दीजियेगा कि अंतरे में (मतले या मुखड़े के बाद का शेर)ख़ाँ साहब आवाज़ को एक ऐसी परवाज़ देते हैं जहाँ उनका स्वर उनके पिच से बाहर जा रहा है तो क्या मेहंदी हसन साहब को अपने गले की हद मालूम नहीं ? जी नहीं जनाब,स्वर को बेसाख़्ता परेशान करना इस ग़ज़ल की ज़रूरत है जो गाने वाले की बैचैनी का इज़हार कर रही है,वो बैचैनी जो शायर ने लिखते वक़्त महसूस की है.पिच के बाहर जाने के बहाने मेहदी हसन सुनने वाले का राब्ता बनाना चाह रहे हैं और बनाते हैं कई ग़ज़लों में, ज़रूरत सिर्फ़ महसूस करने की है.तो ग़ज़ल गायकी के इस उस्ताद की पेशकश पर किसी तरह का शुबहा न करें बस डूब भर जाएँ.

ख़ुसरो ने कहा भी तो है न...जो उतरा सो डूब गया और जो डूबा सो पार.




अब के हम बिछड़े तो शायद कहीं ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इन्सां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

अब न वो मैं हूं न तू है न वो माज़ी है फ़राज़
जैसे दो साये तमन्‍ना के सराबों में मिलें

(हिजाब: परदा, ख़राबा: मरुमारीचिका, माज़ी: बीता हुआ समय)

10 comments:

VIMAL VERMA said...

जिन अल्फ़ाज़ों से आपने मेंहदी हसन साहब की गुरुकारी के बारे में लिखा है वो कमाल है,आज मेहदी साहब को दुआओं की ज़रूरत है.....हम उनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं

Ashok Pande said...

उस्ताद पर आपने कमाल लिख दिया संजय भाई. यह सच है ग़ज़ल गायकी के सरताज़ ख़ान साहब ने ही इस विधा को शास्त्रीय ऊंचाइयों पर पहुंचाया.
और यह भी सच है कि उनके यहां शायर के अलफ़ाज़ को भी उतनी ही इज़्ज़त मिला करती थी जितनी किसी बन्दिश के सुरों को. क्या बात है!

विमल भाई उस्ताद की लम्बी आयु के लिए आपकी दुआ में एक मेरी भी जोड़ी जाए...

दिलीप कवठेकर said...

मुआफ़ करें, पता नही क्यों, प्लेयर नही चल रहा है.

ऊस्ताद पर जो भी अभी लिखा गया है, एक लायब्ररी है, encyclopedia है.गुलुकारी पर कशीदाकरी लाजवाब है, पढ लें तो खुद खां सहाब की तबीयत मे नूर आ जायेगा.

जो लिखा है, उससे राब्ता कायम करने के लिये गाना सुनना लाज़मी है, हर हर्फ़, और सुर को आत्मसात कर पायें तो यही ज़न्नत है,यही ज़न्नत है, यहीं ज़न्नत है.

पिच के बहार जाने वाली बात को सुनने से ही सोचा जा सकेगा, क्योंकि इस गज़ल के कई वर्शन आये है. वैसे खां सहाब ने कभी हदों की पर्वाह नही की, क्योंकि वे हदों से आगे थे. सुना नही, कहना उसे , मे कुछ गीतों मे उनकी आवाज़ मे कुछ खराश भी थी. मगर , सुना था कि बडी ज़ल्दबाजी मे रिकार्डिंग की गयी थी.उनकी आवाज़ और वे कालजयी है.

मेरी भी दुआ, आमीन.

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया. हमारी भी दुआऐं.

पारुल "पुखराज" said...

na jaane kitney peechey kheench le jaatin hain ye ghazalen..behtareen post

pallavi trivedi said...

is ghazal mein faraz sahab aur mehndi hasan sahab ne jadu kiya hai...baar baar sunne ko jee chaahta hai.

Manish Kumar said...

गज़ल तो कई मर्तबे सुन चुका हूँ आपका लेख पढ़ने चला आया।
इस बेहतरीन आलेख के लिए आभार...

Anonymous said...

क्या कहूं;
निशब्द हुं

दिलीप कवठेकर said...

आज जा कर सुन पाया.

फ़िर वही तबले की जादुगरी. अंतरे से मुखडे पर जाते समय झूले की मानिंन्द तबले की नशीली चाल, फिर दुगन चौगन की ताने/हरकते, खां सहाब के साथ तबला भी गाता है .

यही तो वह गज़ल थी जिससे गज़ल सुनने का सफ़र शुरू किया था.

Unknown said...

दो विचार :
१.मनीष कुमार जी की टिप्पणी से पूरी सहमति है |
२.संजय दा,आपनें शायर का नाम बताया,ग़ज़ल गायकी की बारीकियां बतायीं,उनको ध्यान में रखकर सुनना हमारे जैसे संगीत के विद्यार्थियों के लिए ज्ञानवर्धक है |
आपका आभार |