Sunday, July 20, 2008

रंग बिरंगे तन वालों का, सच ये है मन खाली है

'कहना उसे' से उस्ताद मेहदी हसन ख़ान साहब की आवाज़ में फ़रहत शहज़ाद की एक और ग़ज़ल:



सब के दिल में रहता हूं पर दिल का आंगन ख़ाली है
खु़शियां बांट रहा हूं जग में, अपना दामन ख़ाली है

गुल रुत आई, कलियां चटखीं, पत्ती-पत्ती मुसकाई
पर इक भौंरा न होने से गुलशन -गुलशन ख़ाली है

रंगों का फ़ुक दाम नहीं हर चन्द यहां पर जाने क्यूं
रंग बिरंगे तन वालों का, सच ये है मन खाली है

दर-दर की ठुकराई हुई ए मेहबूबा-ए-तनहाई
आ मिल जुल कर रह लें इस में, दिल का नशेमन ख़ाली है

(*आज लाइफ़लॉगर दिक्कत कर रहा है. उस के चालू होते ही प्लेयर बदल दिया जाएगा)

5 comments:

sanjay patel said...

गाने में कैसी तबियत लगा देते हैं ख़ाँ साहब.कितना ठंडा मिज़ाज है गाने वाले का.
कोई उतावल (मालवी शब्द है यानी जल्दबाज़ी) नहीं एक आसूदा (तसल्ली वाली)तासीर का सफ़र.
तुमको पड़ी हो सुनने की तो सुनो वरना मैं तो गाए जा रहा हूँ और मज़े ले रहा हूँ
अच्छी शायरी के; बस ऐसा ही तो सोचते होंगे मेहंदी हसन साहब गाते वक़्त.अशोक भाई इन
लोगों (तलत,बेगम अख़्तर,मेहंदी हसन)ने महज़ गाया नहीं , ग़ज़ल गायकी की डाई
रख बना छोड़ी ज़माने के लिये.माल डालो शायरी का , बाहर निकालो एक नई बंदिश.
और ग़ौर करें ; बहुत भारी या जिसे शास्त्र में कहते हैं खरज वाली,वैसी कोई आवाज़
नहीं है ख़ाँ साहब की ,लेकिन जो दिया है अल्लाह ने उसी से करिश्मा हो रहा है.
इस ग़ज़ल में बीट्स सुनिये...और कोई गाए तो चलत की चीज़ लगेगी लेकिन
मेहंदी हसन साहब जैसे संगतकार को अपनी आमद से थाम रहे हैं ; गोया कह
रहे हों अमाँ क्यूँ जल्दी कर रिया है भाई...चल रिये हैं ...बस ये तो रहा क्लिफ़्टन.
और तबलिया रोक रहा है अपनी उंगलियों से ज़्यादा अपनी साँसों को क्योंकि संगतकार भी साथ साथ गाता है तो विचलित होता है ऐसे ठेके पर और चाहता है गति बढ़ाना
..ग़ज़ल को थामना तो इसी को
कहते हैं हुज़ूर....बरसों के रियाज़ से थमती है ग़ज़ल.उस्तादी आ जाने के बाद
कुछ भी परोसो बिकता है ; लेकिन मेहंदी हसन ग़ज़ल के हाथों बिक गए साहब.
जीते जी मौसीक़ी का वो पाक़ तीर्थ बन गए ..कि सुर लगते ही माथा झुक
जाता है....हाँ सच कह रहा हूँ ; मेहंदी हसन की गूलूकारी का रूहानी आनंद
सिर झुका कर,विनम्र बन कर ही आता है...उस्ताद के आगे कैसी उस्तादी.
मेहंदी हसन की गायकी को समझने का सबसे आसान फ़ार्मूला बता दिये देता हूँ
नासमझ बन कर सुनिये.....सब समझ में आ जाएगा.

दिलीप कवठेकर said...

गज़ल के थामने की बात मेह्दी साहब के बारे मे एक शब्द मे बया करने की बात ्क्या खूब कही है. सालो बीत गये. अछ्छे अछ्छे साध तो पाये लेकिन थाम नही पाये. यही वे सबसे अलग , आगे लिकल गये. सन्जय भाई, आप ने खूब गहरे समझा है उनको.

अशोक भाई, एक सूरूर से निकल नही पाते , आप दूसरे सूरूर मे डाल देते है.

Unknown said...

भाई अशोक,
फ़रहत शहज़ाद के शब्द सुनवाने का धन्यवाद |
यह नया प्लेयर भी अच्छा नज़र आता है,और ठीक चलता है |

Sajeev said...

खूबसूरत ग़ज़ल और संजय भाई की टिपण्णी , मज़ा आ गया, प्लेयर अच्छा है पर रियल प्लेयर दौंलोअद नही करने दे रहा ये दिक्कत है ....

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया, आभार.