"क़द्रदानी ने उनके कलाम को जौहर और मोतियों की निगाहों से देखा और नाम को फूलों की महक बना कर उड़ाया. हिन्दुस्तान में यह बात उन्हीं को नसीब हुई है कि मुसाफ़िर,ग़ज़लों को तोहफ़े के तौर पर शहर से शहर में ले जाते थे"
आधुनिक उर्दू कविता के प्रमुख नाम और उर्दू साहित्य के इतिहास 'आब-ए-हयात' के लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने ये शब्द ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी 'मीर' के बारे में दर्ज़ किये हैं.
"आप बे बहरा है जो मो'तक़िद-ए-मीर नहीं" अब एक ब्रह्मवाक्य का दर्ज़ा हसिल कर चुका है. उर्दू ज़ुबान को अवामी रंग देने का काम दकन में वली ने किया तो उत्तर भारत में ऐसा करने वाले मीर तक़ी थे. मीर बाबा की शायरी कई दफ़ा कन्टेन्ट और एक्स्प्रेशन के सारे स्थापित मापदण्डों से परे पहुंच जाती है और पढ़ने वाला हैरत में आ जाता है कि ऐसा हो कैसे सकता है. लेकिन कविता की यही मूलभूत ताक़त है. दो-ढाई सौ वर्षों बाद भी उनकी शायरी अपनी ख़ुशबू से तमाम जहां को अपना दीवाना बनाए हुए है.
खुदा-ए-सुख़न मीर को जब शहंशाह-ए-ग़ज़ल गाएं तो क्या होगा.
सुनिये और तय कीजिए:
देख तो दिल कि जां से उठता है
ये धुंआं सा कहां से उठता है
गोर किस दिलजले की है ये फ़लक
शोला इस सुबह यां से उठता है
यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है
बैठने कौन दे है फिर दे है उस को
जो तेरे आस्तां से उठता है
इश्क़ इक मीर भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवां से उठता है
(गोर: कब्र, फ़लक: आसमान, नातवां: कमज़ोर)
'राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा’ : मीना कुमारी की याद
में
-
मीना आपा के भीतर कोई चंचल-शोख़ और मन की उड़ान भरती कोई बेफिक्र लड़की रही
होगी...शायद कभी...क्या पता।
पर उनके जीवन पर उदासी का ग्रहण इतना गहरा था कि व...
2 years ago
8 comments:
बहुत सुकून मिला.
कम्बख्त नेताओं ने तो सारा सुकून छीन लिया है. अब बस संजय पटेल, सुरा बेसुरा, सुखनसाज और टूटी बिखरी हुई में ही सुकून मिलता है.
वाह!!!! आनन्द आ गया.
बीस दिन फिर पोस्ट करेंगे तो भी ऐसे ही सुनेंगे जैसे पहले सुना, आज सुना। बहुत खू़ब।
शायदा जी
बेख़याली में दुबारा लगा गया इस ग़ज़ल को. आपने बहुत तरीक़े से बतला/ जतला दिया. शुक्रिया. लेकिन यह तो आप मानेंगी न कि पिछली दफ़ा यह पूरी तरह अपलोड नहीं हो सकी थी. इस बार तो उस्ताद की आवाज़ में बाक़ायदा मक़्ता भी है मी लॉर्ड!
सही कहा आपने। लेकिन हमें इस बेख़याली से फा़यदा ही हुआ। बारिश में इस दोहे को सुनना-
बस्ती ख़ाक हुई, जंगल-जंगल आग....अपने आप में ऐसा एहसास है जो हज़ार बार पोस्ट होने पर भी अलग सा ही रहेगा।
सचमुच शुक्रिया।
एक बार फ़िर वही सुरों और तबले की जुगलबंदी.
वही ठहराव और मुरकीयों की परोसगारी, बार बार डालते रहें , मगर मन नही भरेगा.
यह गज़ल एक भारी पथ्थर है
कब ये हम नातवा से उठता है
सुना कल था, बहुत मजा आया, आज बता रही हूँ :)
बस्ती-बस्ती ख़ाक उडी है, जंगल-जंगल आग
ये धुंआ बलखाता उठे, जैसे काले नाग
Post a Comment