‘तर्ज़’ की तीसरी ग़ज़ल. स्वर शोभा गुर्टू का. प्रस्तुति नौशाद की और संगीत ललित सेन का -
शाम-ए-ग़म मौतबर हो गई
एक नज़र क्या इधर हो गई
अजनबी हर नज़र हो गई
ज़िन्दगी क्या है और मौत क्या
शब हुई और सहर हो गई
उनकी आँखों में अश्क़ आ गए
दास्ताँ मुख़्तसर हो गई
चार तिनके ही रख पाए थे
आँधियों को ख़बर हो गई
छिड़ गई किस के दामन की बात
ख़ुद-ब-ख़ुद आँख तर हो गई
उनकी महफ़िल से उठ कर चले
रोशनी हमसफ़र हो गई
‘तर्ज़’ जब से छुटा कारवाँ
जीस्त गर्द-ए-सफ़र हो गई
3 comments:
उनकी महफ़िल से उठ कर चले
रोशनी हमसफ़र हो गई
waah ...bahut sundar...
नायाब ..
very sweet ghazal with with a lot of pain and voice quality be misaal
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