Saturday, September 15, 2012

उतरा जो नूर, नूर-ए-ख़ुदा बन गई ग़ज़ल


उस्ताद मेहदी हसन ने १९९३ में ख्यात शास्त्रीय गायिका शोभा गुर्टू के साथ मिलकर एक शानदार अलबम जारी किया था – तर्ज़. गणेश बिहारी ‘तर्ज़’ की कुल छः गजलों को इस अलबम में जगह मिली थी. आज से अगले छः दिनों तक सुखनसाज़ के चाहनेवालों के लिए यह पूरा अल्बम पेश किया जाएगा.

पहली प्रस्तुति –



दुनिया बनी तो हम्द-ओ-सना बन गई ग़ज़ल
उतरा जो नूर, नूर-ए-ख़ुदा बन गई ग़ज़ल

गूँजा जो नाद ब्रह्म, बनी रक़्स-ए-महर-ओ-माह
ज़र्रे जो थरथराए, सदा बन गई ग़ज़ल

चमकी कहीं जो बर्क़ तो ऐहसास बन गई
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल

आँधी चली तो कहर के साँचे में ढल गई
बाद-ए-सबा चली तो नशा बन गई ग़ज़ल

हैवां बने तो भूख बनी, बेबसी बनी
इनसान बने तो जज़्ब-ए-वफ़ा बन गई ग़ज़ल

उठा जो दर्द-ए-इश्क़ तो अश्क़ों में ढल गई
बेचैनियाँ बढ़ीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल

ज़ाहिद ने पी तो जाम-ए-पना बन के रह गई
रिंदों ने पी तो जाम-ए-बक़ा बन गई ग़ज़ल

अर्ज़-ए-दकन में जान तो देहली में दिल बनी
और शहर लख़नऊ में हिना बन गई ग़ज़ल

दोहे, रुबाई, नज़्में सब ‘तर्ज़’ थे मगर
असनाफ़-ए-शायरी का ख़ुदा बन गई ग़ज़ल 

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