मरहूम उस्ताद मेहदी हसन खान साहेब की आवाज़ में एक अपेक्षाकृत कम सुनी गयी महाकवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक ग़ज़ल पेश है. सुख़नसाज़ के चाहनेवालों के लिए जल्दी ही उस्ताद की कुछेक और ऐसी ही कम्पोज़ीशंस पेश करता हूँ.
दिल में अब यूँ तेरे भूले हुये ग़म आते हैं
जैसे बिछड़े हुये काबे में सनम आते हैं
रक़्स-ए-मय तेज़ करो, साज़ की लय तेज़ करो
सू-ए-मैख़ाना सफ़ीरान-ए-हरम आते हैं
और कुछ देर न गुज़रे शब-ए-फ़ुर्क़त से कहो
दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं
इक इक कर के हुये जाते हैं तारे रौशन
मेरी मन्ज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं
कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग
वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम आते हैं
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