ग़ज़ल गायकी की जो जागीरदारी मोहतरमा फ़रीदा ख़ानम को मिली है वह शीरीं भी है और पुरकशिश भी. वे जब गा रही हों तो दिल-दिमाग़ मे एक ऐसी ख़ूशबू तारी हो जाती है कि लगता है इस ग़ज़ल को रिवाइंड कर कर के सुनिये या निकल पड़िये एक ऐसी यायावरी पर जहाँ आपको कोई पहचानता न हो और फ़रीदा आपा की आवाज़ आपको बार बार हाँट करती रहे. यक़ीन न हो तो ये ग़ज़ल सुनिये...
Saturday, August 30, 2008
अल्लाह करे के तुम कभी ऐसा न कर सको
Posted by sanjay patel at 12:33 AM 3 comments
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Tuesday, August 26, 2008
तुम्हें भुलाने में शायद हमें ज़माने लगे-यादों में फ़राज़
शदीद ग़म के और की-बोर्ड पर काँपती उंगलियों से लिखता हूँ कि आलातरीन शायर
अहमद फ़राज़ साहब नहीं रहे. वे अपनी ज़िन्दगी में शायरी का एक ऐसा मरकज़ बन गए थे जहाँ तक पहुँच पाना दीगर लोगों के लिये नामुमकिन सा लगता है. मैंने बार बार लिखा भी है कि रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ , इस एक ग़ज़ल को मैं ग्लोबल ग़ज़ल ही कहता हूँ.फ़राज़ साहब ने मुशायरों में होने वाली राजनीति के चलते स्टेज से हमेशा एक मुसलसल दूरी बनाए रखी. जैसा कि होना चाहिये अदब की दुनिया के अलावा समाज और इंसानियत के हक़ में शायर और अदीब खड़े नज़र आने चाहिये सो फ़राज़ साहब हमेशा कमिटेड रहे. ज़ाहिर है सत्ता से उनकी कभी नहीं बनी.भारत-पाकिस्तान की एकता और तहज़ीब के हवाले से अमन और भाईचारे की ख़िदमत उनकी ज़िन्दगी के उसूलों में शुमार रहा. बिला शक कहा जा सकता है कि फ़राज़ साहब के परिदृश्य पर लोकप्रिय होने के बाद ग़ज़ल को एक नया मेयार मिला. मौसीक़ी की दुनिया ने हमेशा उनकी ग़ज़लों का ख़ैरमक्दम किया और जिस तरह की मुहब्बत और बेक़रारी उनके कलाम के लिये देखी जाती रही वह किसी शायर को नसीब से ही मिलती है.
अहमद फ़राज़ साहब की ही एक ग़ज़ल से इस अज़ीम शायर को सुख़नसाज़ की
भावपूर्ण श्रध्दांजलि..
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे
दिल धड़कता नहीं तपकता है
कल जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे
हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इस मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे
कोहकन हो कि क़ैस हो कि फ़राज़
सब में इस शख़्स ही मिला है मुझे
(आबला:छाला/तपकना:जब शरीर कि किसी हिस्से में दर्द हो और वो दर्द दिल धड़कने से भी दुखे/कोहकन:फ़रहाद जिसने शीरीं के लिये पहाड़ काटा था)
Posted by sanjay patel at 1:35 PM 9 comments
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Saturday, August 23, 2008
एक सुब्ह का आगाज़ इस आवाज़ से भी : बेग़म आबिदा परवीन
फैज़ अहमद "फैज़" ..... बेग़म आबिदा परवीन .........
अब इस से आगे मैं क्या कहूँ ?? ( इस से इलावा कि बात शाम की है.....)
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ, आई और आ के टल गई
Posted by अमिताभ मीत at 8:33 AM 6 comments
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Friday, August 22, 2008
इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का
यूनुस भाई ने आज जो सिलसिला चालू किया है, मुझे उम्मीद है सुख़नसाज़ पर अब और भी विविधतापूर्ण संगीत की ख़ूब जगह बनेगी. ५ मई १९६७ को रिलीज़ हुई पाकिस्तानी फ़िल्म 'देवर भाभी' से एक गीत सुनिये आज मेहदी हसन साहब की आवाज़ में. हसन तारिक़ द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में रानी और वहीद मुराद मुख्य भूमिकाओ में थे. फ़ैयाज़ हाशमी के गीतों को इनायत हुसैन ने संगीतबद्ध किया था.
ये लोग पत्थर के दिल हैं जिनके
नुमाइशी रंग में हैं डूबे
ये काग़ज़ी फूल जैसे चेहरे, मज़ाक उड़ाते हैं आदमी का
इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का
इन्हें भला ज़ख़्म की ख़बर क्या कि तीर चलते हुए न देखा
उदास आंखों में आरज़ू का ख़ून जलते हुए न देखा
अंधेरा छाया है दिल के आगे हसीन ग़फ़लत की रोशनी का
ये काग़ज़ी फूल जैसे चेहरे, मज़ाक उड़ाते हैं आदमी
इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का
ये सहल-ए-गुलशन में जब गए हैं, बहार ही लूट ले गए हैं
जहां गए हैं ये दो दिलों का क़रार ही लूट ले गए हैं
ये दिल दुखाना है इनका शेवा, इन्हें है अहसास कब किसी का
ये काग़ज़ी फूल जैसे चेहरे, मज़ाक उड़ाते हैं आदमी
इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का
मैं झूठ की जगमगाती महफ़िल में आज सच बोलने लगा हूं
मैं हो के मजबूर अपने गीतों में ज़हर फिर घोलने लगा हूं
ये ज़हर शायद उड़ा दे नश्शा ग़ुरूर में डूबी ज़िन्दगी का
ये काग़ज़ी फूल जैसे चेहरे, मज़ाक उड़ाते हैं आदमी
इन्हें कोई काश ये बता दे, मकाम ऊंचा है सादगी का
Posted by Ashok Pande at 8:00 PM 6 comments
Labels: फ़ैयाज़ हाशमी, मेहदी हसन के फ़िल्मी गीत
मेहदी हसन साहब सूफि़यान अंदाज़ में कह रहे हैं--अच्छी बात करो, अच्छी बात कहो ।।
सुखनसाज़ पर ये मेरी पहली हाजिरी है । और इसे ख़ास बनाने की कोशिश में यहां आने में इतनी देर लग गई । वरना अशोक भाई ने तो कई हफ्तों पहले मुझे सुख़नसाजि़या बना डाला था । बहरहाल, मैंने अपने लिए सुखनसाज़ी के कुछ पैमाने तय किये हैं । उन पर अमल करते हुए ही इस चबूतरे से साज़ छेड़े जाएंगे ।

मेहदी हसन साहब को मैंने तब पहली बार जाना और सुना जब मैं स्कूल में हुआ करता था । एक दोस्त ने कैसेट की शक्ल में एक ऐसी आवाज़ मुझे दे दी, जिसने जिंदगी की खुशनसीबी को कुछ और बढ़ा दिया । उसके बाद मेहदी हसन को सुनने के लिए मैं शाम चार बजे के आसपास अपने रेडियो पर शॉर्टवेव पर रेडियो पाकिस्तान की विदेश सेवा को ट्यून किया जाने लगा । उस समय अकसर पाकिस्तानी फिल्मों के गाने सुनवाए जाते थे । ये गाना पहली बार मैंने तभी सुना था । उसके बाद फिर भोपाल में मैग्नासाउंड पर निकला एक कैसेट हाथ लगा जिसमें उस्ताद जी के पाकिस्तानी फिल्मों के गाए गाने थे । और हाल ही में मुंबई में एक सी.डी. हाथ लग गयी जिसमें उस्ताद जी के कई फिल्मी गीत हैं साथ ही ग़ज़लें भी ।
तो आईये सुख़नसाज़ पर अपने प्रिय गायक, दुनिया के एक रोशन चराग़, ग़ज़लों की दुनिया के शहंशाह उस्ताद मेहदी हसन का गाया एक फिल्मी गीत सुना जाए । आपको बता दें कि ये सन 1976 में आई पाकिस्तानी फिल्म 'फूल और शोले' का गाना है । इसके मुख्य कलाकार थे ज़ेबा और मोहम्मद अली । मुझे सिर्फ़ इतना पता चल सका है कि इस फिल्म के संगीतकार मुहम्मद अशरफ़ थे । अशरफ़ साहब ने मेहदी हसन के कुल 124 गाने स्वरबद्ध किए हैं ।
मैं जब भी इस गाने को सुनता हूं यूं लगता है मानो को दरवेश, कोई फ़कीर गांव के बच्चों को सिखा रहा है कि दुनिया में कैसे जिया जाता है । नैतिकता का रास्ता कौन सा है । हालांकि नैतिक शिक्षा के ये वो पाठ हैं जिन्हें हम बचपन से सुनते आ रहे हैं । पर जब इन्हें उस्ताद मेहदी हसन की आवाज़ मिलती है तो यही पाठ नायाब बन जाता है । अशरफ साहब ने इस गाने में गिटार और बांसुरी की वो तान रखी है कि दिल अश अश कर उठता है । तो सुकून के साथ सुनिए सुखनसाज़ की ये पेशक़श ।
अच्छी बात कहो, अच्छी बात सुनो,
अच्छाई करो, ऐसे जियो
चाहे ये दुनिया बुराई करे
तुम ना बुराई करो ।।
दुख जो औरों के लेते हैं
मर के भी जिंदा रहते हैं
आ नहीं सकतीं उसपे बलाएं
लेता है जो सबकी दुआएं
अपने हों या बेगाने हों
सबसे भलाई करो ।। अच्छी बात करो ।।
चीज़ बुरी होती है लड़ाई
होता है अंजाम तबाही
प्यार से तुम सबको अपना लो
दुश्मन को भी दोस्त बना लो
भटके हुए इंसानों की तुम
राहनुमाई करो ।। अच्छी बात करो ।।
सुखनसाज़ पर उस्ताद मेहदी हसन के फिल्मी गीतों और उनके लिए दुआओं का सिलसिला जारी रहेगा ।Posted by Yunus Khan at 8:57 AM 5 comments
Labels: मेहदी हसन के फ़िल्मी गीत
Thursday, August 21, 2008
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबां का शऊर आ जाएगा, तुम वहां तक आ तो जाओ हम जहां तक आ गए
अल्बम 'मेराज-ए-ग़ज़ल' से प्रस्तुत है एक और शानदार ग़ज़ल आशा भोंसले की आवाज़ में:
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-नेहां तक आ गए
हम तो दिल तक चाहते थे, तुम तो जां तक आ गए
ज़ुल्फ़ में ख़ुशबू न थी, या रंग आरिज़ में न था
आप किस की जुस्तजू में गुलसितां तक आ गए
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबां का शऊर आ जाएगा
तुम वहां तक आ तो जाओ हम जहां तक आ गए
उनकी पलकों पे सितारे, अपने होटों पे हंसी
क़िस्सा-ए-ग़म कहते-कहते हम यहां तक आ गए
Posted by Ashok Pande at 7:32 PM 3 comments
Labels: आशा भोंसले
Saturday, August 16, 2008
बिछुआ बाजे रे ... ओ बलम - इक़बाल बानो
दोस्तो संगीत का कोई ज्ञान नहीं है मुझे .... दो कौड़ी का नहीं. बस लत है सुनने की ...
और जब इक़बाल बानो की आवाज़ में ऐसा कुछ हो ... तो लगता है कि कुछ और लोग भी सुनें.
तो आज सुनिए ये ग़ज़ब .... "बिछुआ बाजे रे ... ओ बलम...............".
Posted by अमिताभ मीत at 9:28 PM 6 comments
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Friday, August 15, 2008
जश्ने आज़ादी की शाम; जब हो इत्मीनान; सुनें ये ग़ज़ल
छोटी बहर की ये ग़ज़ल उस्ताद मेहंदी हसन की क्लासिकी चीज़ों में शुमार की जा सकती है. ज़माने को जल्दी होगी,ख़ाँ साहब अपना तेवर क़ायम किये हुए हैं.ये कहा जाता है कि नये गुलूकारों ने रिवायती बाजों से अलहदा नये साज़ ग़ज़ल में इस्तेमाल किये लेकिन यहाँ सुनिये तो …सिंथेसाइज़र है और हवाइन गिटार भी . नये नये कमाल किये जाते हैं मेहंदी हसन साहब अपनी गुलूकारी से. सॉफ़्ट तबला तो है ही, ढोलक की थाप भी है. एक अंतरे मे सारंगी जैसा है लेकिन हारमोनियम लगभग ग़ायब सी है जो अमूमन मेहंदी हसन साहब के साथ होती ही है.
मेहदी हसन साहब की ग़ज़लों में बंदिश, एक ख़ास मूड को ज़ाहिर करती है यहाँ बहुत कोमल स्वरों की आमद हुई है. ऐसी ग़ज़लों को सुनने के लिये एक आपकी मानसिक तैयारी होनी भी ज़रूरी भी है (ये बात उनके लिये जो इस ग़ज़ल को पहली बार सुनने वाले हैं)
आइये हुज़ूर जश्ने आज़ादी की दिन भर की व्यस्तताओं के बाद आपको कुछ इत्मीनान फ़राहम हो तो मुलाहिज़ा फ़रमाइये मेहंदी हसन साहब की ये ग़ज़ल; मतला यूँ है.......
कोई हद नहीं है कमाल की,
कोई हद नहीं है जमाल की
Posted by sanjay patel at 6:00 PM 7 comments
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Thursday, August 14, 2008
दिल के ज़ख़्म दिखा कर हमने महफ़िल को गरमाया है
उस्ताद मेहदी हसन का अलबम 'कहना उसे' अब एक अविस्मरणीय क्लासिक बन चुका है. फ़रहत शहज़ाद साहब की इन दिलफ़रेब ग़ज़लों को जब मेहदी हसन साहब ने गाया था, उनका वतन पाकिस्तान ज़िया उल हक़ के अत्याचारों से त्रस्त था. मैंने पहले भी बताया था कि इस संग्रह की सारी ग़ज़लें एक बिल्कुल दूसरे ही मूड की रचनाएं हैं - ऊपर से बेहद रूमानी और असल में बेहद पॉलिटिकल. इस संग्रह को प्रस्तुत करने में दोनों ने अपनी जान का जोख़िम उठाया था. हमें उस्ताद की हिम्मत पर भी नाज़ है.
उसी संग्रह से सुनिये एक और ग़ज़ल:
क्या टूटा है अन्दर-अन्दर, क्यों चेहरा कुम्हलाया है
तन्हा-तन्हा रोने वालो, कौन तुम्हें याद आया है
चुपके-चुपके सुलग रहे थे, याद में उनकी दीवाने
इक तारे ने टूट के यारो क्या उनको समझाया है
रंग-बिरंगी महफ़िल में तुम क्यों इतने चुप-चुप हो
भूल भी जाओ पागल लोगो, क्या खोया क्या पाया है
शेर कहां हैं ख़ून है दिल का, जो लफ़्ज़ों में बिखरा है
दिल के ज़ख़्म दिखा कर हमने महफ़िल को गरमाया है
अब शहज़ाद ये झूठ न बोलो, वो इतना बेदर्द नहीं
अपनी चाहत को भी परखो, गर इल्ज़ाम लगाया है
(फ़ोटो में व्हीलचेयर पर बैठे हैं लम्बे समय से अस्वस्थ ख़ां साहेब. उनके लिए हमारी लगातार दुआएं हैं और उनकी अथक साधना के प्रति सतत कृतज्ञता का बोध भी)
Posted by Ashok Pande at 8:23 PM 6 comments
Labels: फ़रहत शहज़ाद, मेहदी हसन
अल्फ़ाज़ कहाँ से लाऊँ मैं,छाले की टपक समझाने को
सुरमंडल लेकर बैठें हैं उस्ताद जी.सारंगी ऐसी गमक रही है कि दिल लुटा जा रहा है. ग़ज़ल को बरतने का जो हुनर मेहंदी हसन ने पाया है उसे क्या हम दुनिया का आठवाँ आश्चर्य नहीं कह सकते.शहद सी टपकती आवाज़.मेरे शहर के युवा गायक गौतम काले से ये पोस्ट लिखते लिखते पूछ बैठा भाई ये क्या राग है.गौतम बोले दादा जब मेंहदी हसन साहब गा रहे हैं तो सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि ख़ाँ साहब किस मूड में बैठे हैं . गौतम ने बताया कि कहीं लगता है कि बात मारवा से शुरू हुई है (इस ग़ज़ल में नहीं) और पूरिया के स्वर भी लग गए हैं.शिवरंजनी की स्पष्ट छाया नज़र आ रही है मतले के पहले मिसरे पर और दूसरे तक आते आते न जाने क्या सुर लग जाएगा. गौतम यह कहना चाह रहे थे कि मेहंदी हसन साहब के ज़हन में इतना सारा संगीत दस्तेयाब है कि वह किस शक्ल में बाहर आएगा ; अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता. कुछ ग़ज़लें ज़रूर एक राग की सम्पूर्ण छाया लेकर प्रकट होती है जैसे रंजिश ही सही में यमन के ख़ालिस स्वर हैं.
बहरहाल ग़ज़ल के दीवानों को तो सिर्फ़ इस बात से मतलब है कि मेहंदी हसन साहब गा रहे हैं:
किसका कलाम है,राग क्या है , कम्पोज़िशन किसकी है ; इस सब से एक ग़ज़लप्रेमी को क्या मतलब.आइये,एक ऐसी ही ग़ज़ल समाअत फ़रमाइये. कम्पोज़िशन में सादगी का रंग भरा है और ख़ाँ साहब ने भी उसे वैसा ही निभाया है.
धीमे धीमे जवाँ होता मौसीक़ी का जादू आपके दिल में आपोआप में उतर जाता है.
Posted by sanjay patel at 10:00 AM 5 comments
Labels: ग़ज़ल., मेहंदी हसन
Sunday, August 10, 2008
रफ़ी साहब की मख़मली आवाज़ में एक अविस्मरणीय गुजराती ग़ज़ल
ईरान से आई ग़ज़ल जिस तरह हिंदुस्तान की मिट्टी में रच बस गई वह अदभुत है.न जाने कितने मतले रोज़ रचे जाते हैं गाँव-गाँव , शहर-शहर में.ग़ज़ल की ताक़त और आकर्षण देखिये कि वह उर्दू महदूद नहीं , वह दीगर कई भाषाओं में यात्रा कर रही है जिनमें मराठी,गुजराती,सिंधी,बांग्ला,राजस्थानी तो शामिल हैं ही मराठी और निमाड़ी जैसे लोक – बोलियाँ भी जुड़ गईं है.ख़ूब फल-फूल रही है ग़ज़ल.बहर के अनुशासन में रह कर अपनी बात को कहने की जो आज़ादी शायर को मिलती है वही इसे लोकप्रिय बनाती है.
आज पहली बार उर्दू से हटकर आपके लिये सुख़नसाज़ पर पेश-ए-ख़िदमत है एक गुजराती ग़ज़ल.गायक हैं हमारे आपके महबूब गुलूकार मोहम्मद रफ़ी साहब. इस महान गायक की गायकी का कमाल देखिये किस तरह से एक दूसरी भाषा को अपने गले से निभाया है. तलफ़्फ़ुज़ की सफ़ाई में तो रफ़ी साहब बेजोड़ हैं ही, भाव-पक्ष को भी ऐसे व्यक्त कर गए हैं कि कोई गुजराती भाषी गायक भी क्या करेगा.मज़ा देखिये की एक क्षेत्रिय भाषा में गाते हुए रफ़ी साहब ने ज़रूर को जरूर ही गाया है ग़नी को गनी और जहाँ ळ गाना है वहाँ ल नहीं गाया है..एक ख़ास बात और...मक़्ते में एक जगह जहाँ श्वास की बात आई ..वहाँ ध्यान से सुनियेगा कि एक नन्हा सा अंतराल (पॉज़) देकर रफ़ी साहब ने क्या कमाल किया है.
जब आप रफ़ी साहब को सुन रहे होते हैं तो लगता है क़ायनात की सबसे पाक़ आवाज़ आपको नसीब हो गई है.मुझे यक़ीन है ग़ज़ल और मौसीक़ी के मुरीदों के लिये भाषा किसी तरह की अड़चन नहीं होगी.कम्पोज़िशन,गायकी और भाव की दृष्टि से आप सुख़नसाज़ का यह रविवारीय नज़राना तहे-दिल से क़ुबूल करेंगे.
दिवसो जुदाई ना जाये छे,ए जाशे जरूर मिलन सुधी
मारो हाथ झाली ने लई जशे,मुझ शत्रुओज स्वजन सुधी
दिन जुदाई के बीत रहे हैं लेकिन ये मुझे मिलन तक ले जाएंगे.
मेरे दुश्मन ही मेरा हाथ थाम कर मुझे अपने स्वजनों के पास ले जाएंगे
न धरा सुधी न गगन सुधी,नही उन्नति ना पतन सुधी
फ़कत आपणे तो जवु हतुं, अरे एकमेक ना मन सुधी
न धरती तक, न आसमान तक , न पतन तक न उन्नति तक
हमें तो सिर्फ़ जाना था एक दूसरे के मन तक
तमे रात ना छो रतन समाँ,ना मळो है आँसुओ धूळ माँ
जो अरज कबूल हो आटली,तो ह्र्दय थी जाओ नयन सुधी
आप तो ग़रीब के लिये दमकते हीरे से हो,धूल और आँसू में नहीं जा मिलते
अगर प्रार्थना स्वीकार हो इतनी तो ह्र्दय से नयन तक तो चले जाइये.
तमे राज-राणी ना चीर सम,अमें रंक नार नी चूंदड़ी
तमे तन पे रहो घड़ी बे घड़ी,अमें साथ दयै कफ़न सुधी
आप तो राजरानी के वस्त्र जैसे हैं और हम ग़रीब की चूनर जैसे
आप तन पर घड़ी दो घड़ी के लिये रहते हैं,हम तो कफ़न हो जाने तक के साथी हैं
जो ह्र्दय नी आग वधी गनी तो ख़ुद ईश्वरेज कृपा करी
कोई श्वास बंद करी गयुँ,के पवन ना जाए अगन सुधी
अगर ह्र्दय की आग ग़नी(शायर ग़नी दहीवाला का तख़ल्लुस) बढ़ गई,तो ख़ुद ईश्वर ने ही कृपा की है ऐसा मानो ;कोई श्वास को बंद कर गया है ,हवा अग्नि तक नहीं जा रही है.
Posted by sanjay patel at 11:21 AM 10 comments
Labels: गुजराती ग़ज़ल, मोहम्मद रफ़ी
Friday, August 8, 2008
ख़ुदा की शान है .....
"सखी !!"
मेरा जो कुछ है, सब "सखी" का है इस लिए आगाज़ इसी नाम से करता हूँ :
आज पहली बार यहाँ कुछ सुनाने की जुर्रत कर रहा हूँ .... इस लिए क्या कहूँ .... आज मेरी पसंद पे अख्तरी बाई "फैज़ाबादी" की आवाज़ में ये ग़ज़ल पेश है ...... मैं आज भी लाख कुछ भी, किसी को भी सुन लूँ, इस आवाज़, और इस अंदाज़ का जादू मुझ पे हमेशा की तरह तारी है ... शायद हमेशा रहेगा .....
एक छोटी सी ग़ज़ल पेश है :
ख़ुदा की शान है हम यूँ जलाए जाते हैं
हमारे सामने दुश्मन बुलाए जाते हैं
हमारे सामने हँस हँस के गै़र से मिलना
ये ही तो ज़ख्म कलेजे को खाए जाते हैं
हमारी बज़्म और उस बज़्म में है फर्क इतना
यहाँ चिराग़ वहाँ दिल जलाए जाते हैं
Posted by अमिताभ मीत at 11:35 PM 11 comments
Labels: बेग़म अख़्तर
Wednesday, August 6, 2008
तुम बादशाह-ए-हुस्न हो, हुस्न-ए-जहान हो
बुलबुल ने गुल से
गुल ने बहारों से कह दिया
इक चौदहवीं के चांद ने
तारों से कह दिया
शब्दों को तक़रीबन सहलाते हुए उस्ताद यह बहुत ही मधुर, बहुत ही मीठा गीत शुरू करते हैं. गीत पुराना है और ख़ां साहब की आवाज़ में है वही कविता और गायकी को निभाने की ज़िम्मेदार मिठास:
दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं
इक दिलरुबा है दिल में जो फूलों से कम नहीं
तुम बादशाह-ए-हुस्न हो, हुस्न-ए-जहान हो
जाने वफ़ा हो और मोहब्बत की शान हो
जलवे तुम्हारे हुस्न के तारों से कम नहीं
(इस में एक पैरा और है लेकिन मेरे संग्रह से में वो वाला वर्ज़न नहीं मिल रहा जहां मेहदी हसन साहब ने इसे भी गाया है:
भूले से मुस्कराओ तो मोती बरस पड़ें
पलकें उठा के देखो तो कलियाँ भी हँस पड़ें
ख़ुश्बू तुम्हारी ज़ुल्फ़ की फूलों से कम नहीं)
Posted by Ashok Pande at 6:22 PM 9 comments
Labels: मेहदी हसन
Monday, August 4, 2008
मेरी आहों में असर है के नहीं देख तो लूँ
उस्ताद मेहंदी हसन ग़ज़ल के सुमेरू हैं। जब जब भी सुख़नसाज़ पर ख़ॉं साहब तशरीफ़ लाएँ हैं हमने महसूस किया है कि ग़ज़ल का परचम सुरीला हो उठा है। इन दिनों अशोक भाई के साथ जारी मेहंदी हसन साहब की ग़ज़लों का ये महोत्सव दरअसल इस महान गुलूकार के प्रति हमारी भावभीनी आदरांजली है। पूरी दुनिया जानती है कि ख़ॉं साहब की तबियत नासाज़ है और वे कराची के एक अस्पताल में आराम फ़रमा रहे हैं। हमने देखा है न कि जब भी घर में कोई बीमार होता है तो हम हर तरह के इलाज के लिये यहॉं-वहॉं भागते हैं। सुख़नसाज़ पर ग़ज़लों का ये सिलसिला जैसे हमारे दिलों में दुआओं का सैलाब लेकर ख़ॉं साहब की ग़ज़लों के ठौर का सफ़र कर रही हैं। गोया दुआ मॉंग रहे हैं हम सब कि हमारे मेहंदी हसन साहब चुस्त और तंदरुस्त होकर घर लौटें।
आज सुख़नसाज़ पर पेश की जा रही ये ग़ज़ल मेहंदी हसन घराने के रिवायती अंदाज़ की बेहतरीन बानगी है। पहले भी कई बार कह चुका हूँ और दोहराने में कोई हर्ज़ नहीं कि मेहंदी हसन इंडियन सब-कांटिनेंट की ग़ज़ल युनिवर्सिटी हैं और हम सब सुनने वाले, गाने-बजाने वाले, लिखने-पढ़ने वाले इस युनिवर्सिटी के तालिब-ए-इल्म हैं। मौसीक़ी के सारे सबक़ मेहंदी हसन साहब के यहॉं पसरे पड़े हैं। आप जो चाहें सीख लें, साथ ले जाएँ। गायकी की सादगी, पोएट्री की समझ, बंदिश में एक ठसकेदार रवानी और कंपोजिशन का बेमिसाल तेवर.
तो चलिये एक बार फ़िर मुलाहिज़ा फ़रमाइये उस्ताद मेहंदी हसन साहब की ये बेजोड़ बंदिश
मेरी आहों में असर है के नहीं देख तो लूँ
उसको कुछ मेरी ख़बर है के नहीं देख तो लूँ
Posted by sanjay patel at 7:09 PM 5 comments
Labels: ग़ज़ल, मेहंदी हसन
मिटता नहीं है जेहन से, यूं छा गया कोई
आज सुनते हैं उस्ताद से एक गीत. बहुत - बहुत मीठा गीत है. सुनिये और बस अपने दिल को अच्छे से थामे रहिये:
यूं ज़िन्दगी की राह में टकरा गया कोई
इक रोशनी अंधेरे में बिखरा गया कोई
वो हादसा वो पहली मुलाकात क्या कहूं
इतनी अजब थी सूरत-ए-हालात क्या कहूं
वो कहर वो ग़ज़ब वो जफ़ा मुझको याद है
वो उसकी बेरुख़ी कि अदा मुझको याद है
मिटता नहीं है जेहन से, यूं छा गया कोई
पहले मुझे वो देख के बरहम सी हुई
फिर अपने ही हसीन ख़यालों में खो गई
बेचारगी पे मेरी उसे रहम आ गया
शायद मेरे तड़पने का अन्दाज़ भा गया
सांसों से भी क़रीब मेरे आ गया कोई
अब उस दिल-ए-तबाह की हालात न पूछिए
बेनाम आरज़ू की लज़्ज़त न पूछिए
इक अजनबी था रूह का अरमान बन गया
इक हादसा का प्यार का उन्वान बन गया
मंज़िल का रास्ता मुझे दिखला गया कोई
('सुख़नसाज़' आज से थोड़ा और 'अमीर' हो गया. रेडियोवाणी जैसे ज़बरदस्त संगीत-ब्लॉग के संचालक यूनुस आज से 'सुख़नसाज़' से जुड़ गए हैं. सो यह पोस्ट उनके यहां आने के स्वागत में समर्पित की जाती है)
Posted by Ashok Pande at 2:24 PM 4 comments
Labels: मेहदी हसन
Saturday, August 2, 2008
मुमकिन हो आप से तो भुला दीजिए मुझे
शहज़ाद अहमद 'शहज़ाद' की ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है आज. अभी उस्ताद की महफ़िल कुछ दिन और जारी रखने का इरादा है.
मुमकिन हो आप से, तो भुला दीजिए मुझे
पत्थर पे हूं लकीर, मिटा दीजिए मुझे
हर रोज़ मुझी से ताज़ा शिकायत है आपको
मैं क्या हूं एक बार बता दीजिए मुझे
क़ायम तो हो सके रिश्ता गुहर के साथ
गहरे समन्दरों में बहा दीजिए मुझे
शहज़ाह यूं तो शोला-ए-जां सर्द हो चुका
लेकिन सुलग उठूं तो हवा दीजिए मुझे
Posted by Ashok Pande at 8:49 PM 8 comments
Labels: मेहदी हसन, शहज़ाद अहमद 'शहज़ाद'
Friday, August 1, 2008
ताज़ा हवा बहार की दिल का मलाल ले गई
ग़ज़ल को सुनने की एक ख़ास वजह शायरी का लुत्फ़ लेना होता है.लेकिन जब ग़ज़ल उस्ताद मेहदी हसन साहब गा रहे हों तब सुनने वाले के कान मौसीक़ी पर आ ठहरते हैं. कई ग़ज़लें हैं जो आप सिर्फ़ ख़ाँ साहब की गायकी की भव्यता का दीदार करने के लिये सुनते हैं. यहाँ आज पेश हो रही ग़ज़ल उस ज़माने का कारनामा है जब संगीत में सिंथेटिक जैसा शब्द सुनाई नहीं देता था. मैं यहाँ ये साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मुझे विदेशी वाद्यों से गुरेज़ नहीं , उन्हें जिस तरह से इस्तेमाल किया जाता है उससे है. ख़ाँ साहब के साहबज़ादे कामरान भाई ने कई कंसर्ट्स में क्या ख़ूब सिंथेसाइज़र बजाया है. लेकिन जो पेशकश मैं आज लाया हूँ वह सुख़नसाज़ के मूड और तासीर पर फ़बती है.
राग जैजैवंती में सुरभित ये ग़ज़ल रेडियो के सुनहरी दौर का पता देती है. रेडियो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का संगीत इदारा एक ज़माने में करिश्माई चीज़ों को गढ़ता रहा है. सारे कम्पोज़िशन्स हारमोनियम,बाँसुरी,वॉयलिन,सितार और सारंगी बस इन चार-पाँच वाद्यों के इर्द-गिर्द सारा संगीत सिमटे होते हैं. इस ग़ज़ल में भी यही सब कुछ है. सधा हुआ...शालीन और गरिमामय.रिद्म में सुनें तो तबला एक झील के पानी मानिंद ठहरा हुआ है और उसके पानी में कोई एक सुनिश्चित अंतराल पर कंकर डाल रहा है.
मेहदी हसन के पाये का आर्टिस्ट गले से क्या नहीं कर सकता. उनकी आवाज़ ने जो मेयार देखे हैं कोई देख पाया है क्या. पूरी एक रिवायत पोशीदा है उनकी स्वर-यात्रा में. लेकिन देखिये, सुनिये और समझिये तो ख़ाँ साहब कैसे मासूम विद्यार्थी बन बैठे गा रहे हैं...क्योंकि यहाँ कम्पोज़िशन किसी और की है. आज़ादी नहीं है अपनी बात कहने की ...जो संगीत रचना में है (गोया नोटेशन्स पढ़ कर गा रहे हैं जैसे दक्षिण भारत में त्यागराजा को गाय जाता है या बंगाल में रवीन्द्र संगीत को )बस उसे जस का तस उतार रहे हैं ... लेकिन फ़िर भी छोटी छोटी जगह जो मिली है गले की हरक़त के लिये उसमें वे दिखा दे रहे हैं कि यहाँ है मेहंदी हसन...
इस आलेख की हेडलाइन में शायरी के पार की बात का मतलब ये है कि बहुत साफ़गोई से कहना चाहूँगा कि एक तो मतले तो काफ़ी गहरा अर्थे लिये हैं लेकिन मौसीक़ी का आसरा कुछ इस बलन का है कि मेहदी हसन साहब दिल में उतर कर रह जाते है.
अंत में एक प्रश्न आपके लिये छोड़ता हूँ...
हम जैसे थोड़े बहुत कानसेनों के लिये इतनी ही जैजैवंती काफ़ी है
सादगी से मेहदी हसन साहब के कंठ से फ़ूट कर हमारे दिल में समाती सी.
हम सब को ग़ज़ल के इस दरवेश का दीवाना बनाती सी.
Posted by sanjay patel at 7:28 PM 6 comments
Labels: ग़ज़ल, ताज़ा ख़याल., मेहंदी हसन