Friday, June 27, 2008

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर

एक शायर थे मीराजी। मशहूर अफसानानिगार सादत हसन मंटो साहब की एक किताब है 'मीनाबाज़ार'। इस किताब में उन्होने बड़े अपनेपन के साथ मीराजी को याद किया है। मीराजी (२५ मई १९१२-४ नवम्बर १९४९ ) का असली नाम मोहम्मद सनाउल्लाह सानी था। फितरत से आवारा और हद दर्जे के बोहेमियन मीराजी ने यह उपनाम अपने एक असफल प्रेम की नायिका मीरा सेन के गम से प्रेरित हो कर धरा था। सन १९१२ में पैदा हुए मीराजी ने कुछ समय तक 'साकी' और 'ख़याल' जैसी लघु पत्रिकाओं के लिए लेख वगैरह लिखे। 'हल्क़ा' नाम की साहित्यिक संस्था से जुडे इस शायर को कई आलोचक उर्दू भाषा में प्रतीकवाद का प्रवर्तक मानते हैं।

उन के पिता भारतीय रेलवे में बड़े अधिकारी थे लेकिन घर से मीराजी की कभी नहीं बनी और कुल जमा ३७ साल की उम्र का बड़ा हिस्सा उन्होने एक बेघर शराबी के तौर पर बिताया। छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के लिए गीत और लेख लिख कर उनका गुज़ारा होता था। मीराजी के दोस्तों ने उन्हें बहुत मोहब्बत दी और अंत तक उनका ख़याल रखा। कहा जाता है की बाद बाद के सालों में वे मानसिक संतुलन खो चुके थे।

फ्रांसीसी कवि चार्ल्स बौद्लेयर को अपना उस्ताद मानने वाले मीराजी संस्कृत, अंग्रेजी और फारसी (संभवतः फ्रेंच भी) जानते थे। उनकी सारी रचनाएं १९८८ में जाकर 'कुल्लियात-ए-मीराजी' शीर्षक से छप सकीं। उन्होने संस्कृत से दामोदर गुप्त और फारसी से उमर खैय्याम की रचनाओं का उर्दू तर्जुमा किया। मीराजी की यह ग़ज़ल (जिसका ज़िक्र मंटो की 'मीनाबाज़ार' में भी आता है) कुछ साल पहले गुलाम अली ने 'हसीन लम्हे' नाम के अल्बम में गाई थी।

सुनिए।


6 comments:

महेन said...

अचानक याद आया…
"सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो,
अभी टुक रोते-रोते सोया है…"
आपने मंटो के मीराजी वाले संस्मरण की याद दिलाकर अच्छा किया… मीराजी की किताब ढ़ूँढनी पड़ेगी, अगर छपी हो तो…
ब्लोग पसंद आया आपका… धन्यवाद।
शुभम।

शायदा said...

पढ़ा था, सुन भी लिया।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

बहुत अच्छा लगा
पढ़कर...सुनकर.

शुक्रिया
चन्द्रकुमार

अमिताभ मीत said...

सही है. बहुत बढ़िया अशोक भाई. बहुत दिनों बात सुनी ये ग़ज़ल.

Udan Tashtari said...

आभार इसे सुनवाने का.

Sajeev said...

हमें तो सब कुछ याद रहा पर हमको जमाना भूल गया .... क्या बात है घुलाम अली और मीराजी की जुगलबंदी कमाल की है भाई साब