Tuesday, June 24, 2008

तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर न हो

संभवतः कल आपने कबाड़ख़ाने में अहमद हुसैन - मोहम्मद हुसैन की ग़ज़ल सुनी होगी. आज उन्हीं के अल्बम 'रिफ़ाक़त' से सुनते हैं जनाब बशीर बद्र की एक ग़ज़ल



कभी यूं भी आ मेरी आंख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर न हो

मेरे बाज़ुओं में थकी थकी, अभी महवे ख़्वाब है चांदनी
ना उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

कभी दिन की धूप में घूम कर, कभी शब के फ़ूल को चूम कर
यूं ही साथ साथ चलें सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो



(शायरी के शौकीनों के लिए पेश है यह पूरी की पूरी ग़ज़ल:

कभी यूं भी आ मेरी आंख में, कि मेरी नजर को खबर न हो
मुझे एक रात नवाज दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर न हो

मेरे बाज़ुऔं में थकी थकी, अभी महवे ख्वाब है चांदनी
ना उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुजर न हो

ये ग़ज़ल है जैसे हिरन की आंखों में पिछली रात की चांदनी
ना बुझे ख़राबे की रौशनी, कभी बेचिराग़ ये घर न हो

वो फ़िराक़ हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गु़लाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो

कभी धूप दे, कभी बदलियां, दिलोजान से दोनो क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में ना कैद कर, जहां ज़िन्दगी का हवा न हो

कभी यूं मिलें कोई मसलेहत, कोई खौ़फ़ दिल में ज़रा न हो
मुझे अपनी कोई ख़बर ना हो, तुझे अपना कोई पता न हो

वो हजार बागों का बाग हो, तेरी बरकतो की बहार से
जहां कोई शाख़ हरी ना हो, जहां कोई फूल खिला न हो

तेरे इख़्तियार में क्या नहीं, मुझे इस तरह से नवाज़ दे
यूं दुआयें मेरी क़ुबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ न हो

कभी हम भी इस के क़रीब थे, दिलो जान से बढ कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो

कभी दिन की धूप में झूम कर, कभी शब के फ़ूल को चूम कर
यूं ही साथ साथ चले सदा, कभी खत्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, जरा और दिल के क़रीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूं मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो.)

* फ़ोटो रविवार से साभार

15 comments:

शायदा said...

क्‍या इत्‍तेफ़ाक है, आज दोपहर से ये लाइनें दिलो-दिमाग़ को छूकर जा रही थीं बार-बार। आपने सुनवा भी दीं। शुक्रिया।

शायदा said...

यही ग़ज़ल दूसरे सिंगर्स की आवाज़ में भी है। अगर आपके पास जगजीत सिंह वाला वर्ज़न हो तो उसे भी डाल दें प्‍लीज़।

रंजू भाटिया said...

कभी हम भी इस के क़रीब थे, दिलो जान से बढ कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो

आज तो आपने दिल की मुराद पूरी कर दी शुक्रिया यह गजल मेरे दिल के बेहद करीब है यह गजल आवाज़ का जादू तो है ही

PD said...

वाह.. हम इसके पूरे नज्म की तलाश में थे और नहीं मिल रहा था.. मजा आ गया साहब..

अमिताभ मीत said...

क्या बात है अशोक भाई, वाह ! बहुत दिनों बाद सुनी ये ग़ज़ल. मज़ा आ गया. शुक्रिया.

Sajeev said...

वाह बशीर साब की ग़ज़ल हो और समां न बंधे ऐसा कैसे हो सकता है ....

पारुल "पुखराज" said...

badhiyaa..yahan haazri zaruuri hai ab

Ashok Pande said...

शायदा जी

आपकी डिमांड नोट कर ली गई है. किसी अलग पोस्ट में लगाता हूं जल्दी.

रंजू जी, प्रशान्त भाई, अमिताभ भाई, सजीव जी और पारुल जी आप सब का शुक्रिया.

अमिताभ भाई, पिछली पोस्ट की ग़लती सुधार ली है. धन्यवाद.

sanjay patel said...

कैसे लाजवाब अंदाज़ मे ग़ज़ल गायकी की रहनुमाई करते हैं ये दोनो भाई.
अशोक भाई मेरे वह लिस्ट जिसका चर्चा अक्सर मैं लिखने में या टिप्पणियों
में करता रहता हूँ...उन लोगों की लिस्ट जिन्हें जिनका ड्यू न मिला..या यूँ
कहूँ मेरे अनसंग हीरोज़...अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन भी उसी लिस्ट में .
बला की सी क़ाबिलियत और कैसा ग़ज़ब का हुनर.ख़ाकसार को इन दोनो का
छोटा भाई होने का हक़ हासिल है (ये बड़प्पन है दोनो भाई जान का कि मुझ
जैसे नाक़ारा इंसान को इज़्ज़त बख़्शते हैं)पिछले तीस बरसों में जिन लोगों ने
क्लासिकी ग़ज़ल की आन रखी है उनमें हुसैन बंधु को पहली पायदान पर रखता हूँ
मैं.अदभुत समझ शायरी की, हज़ारों अशआर मुँहज़ुबानी याद,क्लासिकल मूसीकी
पर ज़बरदस्त पकड़ , अपनी कम्पोज़िशन्स को खु़द सँवारने की कलाकारी...क्या
क्या लिखूँ अशोक दा ..पूरी एक पोस्ट बन जाएगी.जिस तरह से ये दोनो गूलूकार
कलाम को सहलाते हैं...शायरी इनके गले में आकर दमक उठती है.अशोक भाई
अहमद हुसैन-मो.हुसैन की गाई रागमाला कभी हो सके तो शाया कीजियेगा..
वरना मैं भी ढ़ूढने की कोशिश करता हूँ..अल्ला हाफ़िज़.

Ashok Pande said...

संजय भाई, ज़र्रानवाज़ी का शुक्राना. लगाता हूं जल्दी आपकी पसन्द भी.

pallavi trivedi said...

shukriya ..ise sunwane ke liye.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

गज़ब की गायकी,
उतने ही दीलकश अल्फाज़ -
बहुत खूब -
इसे सुनवाने का शुक्रिया -
- लावण्या

Yashwant R. B. Mathur said...

आपको लोहड़ी हार्दिक शुभ कामनाएँ।
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कल 13/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

मेरा मन पंछी सा said...

बहूत हि लाजवाब अभिव्यक्ती है
दिल को छु लेनेवली...

Sidharth Ranga said...

इसमें दो शेर कम है वो लिख देते हैं सभी के लिए।

सरे शाम ठहरी हुई जमी, जहां आसमाँ भी है झुका हुआ।
उसी मोड़ पर मेरे वास्ते, वो चराग़ लेकर खड़ा न हो।।

मेरी छत से रात की सेज तक एक आंसुओं की लकीर है
ज़रा बढ़ कर चाँद से पूछना कहीं वो इधर से गया न हो।।