मोहम्मद रफ़ी साहब गा रहे हैं मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां 'ग़ालिब' की महानतम ग़ज़लों में शुमार की जाने वाली एक रचना. उर्दू के काफ़ी सारे मुश्किल शब्द हैं इन तीन अशआर में. आपकी सुविधा के लिये इन सब का अर्थ भी दे रहा हूं.
क़द-ओ-गेसू में क़ैस-ओ-कोहकन की आज़माइश है
जहां हम हैं वहां दार-ओ-रसन की आज़माइश है
नहीं कुछ सुब्ह-ओ-ज़ुन्नार के फ़न्दे में गीराई
वफ़ादारी में शैख़-ओ-बरहमन की आज़माइश है
रग-ओ-पै में जब उतरे ज़हर-ए-ग़म तब देखिये क्या हो
अभी तो तल्ख़ि-ए-काम-ओ-दहन की की आज़माइश है
(क़द-ओ-गेसू: प्रेमिका के सन्दर्य के दो पारम्परिक प्रतिमान यानी लम्बाई और केश, क़ैस-ओ-कोहकन: मजनूं और फ़रहाद, दार-ओ-रसन: सूली और फांसी का फ़न्दा, यहां सूली से माशूक के क़द और फांसी के फ़न्दे से माशूक की केशराशि की तरफ़ इशारा करते हैं मिर्ज़ा साहब, सुब्ह-ओ-ज़ुन्नार: तसबीह यानी फेरी जाने वाली माला और यज्ञोपवीत, गीराई: पकड़ या गिरफ़्त, शैख़-ओ-बरहमन: मौलवी और पंडा, रग-ओ-पै: नसें और मांसपेशियां यानी पूरी देह, तल्ख़ि-ए-काम-ओ-दहन: होंठ और तालु पर महसूस होने वाला कसैलापन)
रफ़ी साहब की गाई मिर्ज़ा ग़ालिब की एक और ग़ज़ल कल ही मीत ने भी लगाई है. ज़रूर सुनें:
ये न थी हमारी क़िस्मत, कि विसाल-ए-यार होता
'राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा’ : मीना कुमारी की याद
में
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मीना आपा के भीतर कोई चंचल-शोख़ और मन की उड़ान भरती कोई बेफिक्र लड़की रही
होगी...शायद कभी...क्या पता।
पर उनके जीवन पर उदासी का ग्रहण इतना गहरा था कि व...
2 years ago
1 comments:
ये न थी हमारी किस्मत-आनन्द आ गया.आभार.
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