फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की इस कालजयी ग़ज़ल को स्वर दे रहे हैं उस्ताद मेहदी हसन
गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले
क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत सँवार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले
मक़ाम 'फै़ज़' कोई राह में जंचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
(गुल: फूल, बाद-ए-नौबहार: नये वसन्त की हवा, कफ़स: पिंजरा, सबा: सुबह की समीर, बहर-ए ख़ुदा: भगवान के वास्ते, शब-ए-हिज्रां: विरह की रात, अश्क: आंसू, आक़बत: परलोक, कू-ए-यार: प्रेमिका की गली, सू-ए-दार: फांसी का फ़न्दा)
फ़ैज़ साहब की कुछ अन्य रचनाएं दिलचस्प आवाज़ों में इन्हीं दिनों एकाधिक ब्लॉग्स पर आई हैं. फ़िलहाल ये लिंक ज़रूर देखिये:
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में
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मीना आपा के भीतर कोई चंचल-शोख़ और मन की उड़ान भरती कोई बेफिक्र लड़की रही
होगी...शायद कभी...क्या पता।
पर उनके जीवन पर उदासी का ग्रहण इतना गहरा था कि व...
2 years ago
8 comments:
जितनी बार भी सुना जाये ..कम है
वाह भाई साहब. यूं ही छाये रहें. हम मस्त हैं .... शुक्रिया
आनन्द आ गया जी, आभार.
बहुत खूब,
मेहदी हसन साहब का तो जवाब नहीं,
धन्यवाद
अशोक भाई;
मेहंदी हसन साहब की इसी ग़ज़ल से मेरे किशोरवय को शायरी मे रूचि लेने का माद्दा मिला. ये पूरी बंदिश जारी की है आपने. मैने पहले - पहल इसके तीन मतले ही सुने थे. विविध भारती के रंग-तरंग कार्यक्रम में दोपहर दो बजे हरिओमशरण के भजनों के बाद ज़रूर बजती थी.
अस्सी के दशक में पिताजी ने अपने मित्र के द्वारा शुरू किये गए इलेक्ट्रानिक शो-रूम में मेरी ड्यूटी इस लिहाज़ से लगा दी थी कि कॉलेज से फ़्री होने के बाद लड़का यहाँ वहाँ भटक कर आवारा न हो जाए.नया ट्रेंड आया था रेकॉर्डों से कैसेट बनवाने का .. . मुझे तो जैसे मन की मुराद मिल गई...ये ग़ज़ल न जाने कितनी कैसेटों में भरी मैने.और हासिल कर ली संगीत की ये आवारगी जो अब चैन ही नहीं लेने देती.
जब मेहंदी हसन साहब इन्दौर तशरीफ़ लाए तो मैने आयोजकों से कहा कि मैं एंकरिंग करने के अलावा ख़ाँ साहब को होटल में अटेंड भी कर लूंगा.ख़ूब बातें करता रहा दो दिनों तक...पान,सिगरेट लाकर देता रहा.
एक बार पूछ ये जो ग़ज़ल है गुलों में रंग भरे ...कैसे बनीं..तो बोले कि रेडियो पाकिस्तान के लिये ये ग़ज़ल रेकॉर्ड की थी.लाइट म्युज़िक के कार्यक्रम के लिये. वे कहने लगे कि देखना ये कैसेट का बाज़ार (तब सीडीज़ नहीं आए थे)रेडियो के जलवे को कम कर देगा.आज ये ग़ज़ल सुनते हुए उनकी बात याद आ रही है.
दुआ करें आबाद रहे ग़ज़लों का कारवाँ और तंदरूस्ती बख्शे इस सर्वकालिक महान गूलूकार को.
hi im vikas this side,shayad maine bhut waqt pehle is blog ka address hindustan akhbaar mein dekha tha,aur phir use kahin likh kar bhool gya ,aaj jab achanak wo varq mere haath laga to rha na gya,aaj se hum bhi aapke rafeeq hue,
Kai Saalon se log yaha comment kiye baithen hain..Mehndi hassan aur faiz sahab ke tarif mein kyaa kyaa kasiden padhe gaye hai..
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