Monday, June 23, 2008

मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए

मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में सुनिये मिर्ज़ा ग़ालिब की विख्यात ग़ज़ल:

मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए
जोश-ए-कदः से बज़्म चराग़ां किये हुए

मांगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियह रुख़ पे परीशां किये हुए

इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़रोग़-ए-मै से गुलिस्तां किये हुए

जी ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां किये हुए

ग़ालिब हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहया-ए-तूफ़ां किये हुए



इसी ग़ज़ल को इक़बाल बानो से सुनिये 'कबाड़ख़ाने' पर

9 comments:

Girish Kumar Billore said...

जी ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां किये हुए
ati sunder

पारुल "पुखराज" said...

wah!!!

रंजू भाटिया said...

इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़रोग़-ए-मै से गुलिस्तां किये हुए

जी ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां किये हुए

इतनी सुंदर गजल को बेहद सुंदर आवाज़ में सुनाने के लिए शुक्रिया

मैथिली गुप्त said...

पहले ये गज़ल मेंहदी हसन साहब की आवाज में ही सुनी थी आज आपके यहां रफी साहब की आवाज में भी सुनने का मौका मिल गया
वाह

अमिताभ मीत said...

मस्त मस्त कर दिया अशोक भाई. वाह ! अच्छा चलिए रफ़ी साहब की आवाज़ में ही एक और ग़ालिब की ग़ज़ल मेरी ओर से भी .... आज रात ही ? या कल सुबह ? रात भर सुनता हूँ फिर तय करता हूँ कौन सी .... क्या ख़याल है ??

Udan Tashtari said...

वाह वाह! आनन्द आ गया.

Admin said...

वाह! आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं, नियमित लिखते रहें

आशीष कुमार 'अंशु' said...

वाह वाह

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

बहुत वक्त बाद मिर्जा गालिब के ये गजल सुनवाने के लिए शुक्रिया अशोकजी,

मेरी पसंदीदा पंक्तियां के लिए भी -

जी ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां किये हुए