आज इस ब्लॉग पर आप के लिए ‘जिगर’ मुरादाबादी की ग़ज़ल है मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख्तर के स्वर में –
कोई ये कह
दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएं
एक नशेमन
फूल खिले
हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना
अपना दामन
आज न जाने
राज़ ये क्या है
हिज्र की
रात और इतनी रौशन
रहमत होगी ग़ालिब-ए-इसियाँ
रस्क करेगी पाक-ए-दामन
काँटों का भी कुछ हक है आखिर
कौन छुड़ाए अपना दामन
नोट- बेग़म अख्तर ने पूरी ग़ज़ल नहीं गाई है. पूरी ग़ज़ल ये रही-
कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएं, एक नशेमन
कामिल रहबर, कातिल रहजन
दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन
उम्रें बीतीं सदियाँ गुजरीं
है वही अक्ल का बचपन
इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कार-ए-शीशा-ओ-आहन
खैर मिजाज़-ए-हुस्न की या रब
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन
आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रौशन
तुने सुलझा कर गेसू-ए-जाना
और बढ़ा दी दिल की धड़कन
चलती फिरती छाओं है प्यारे
किस का सेहरा कैसा गुलशन
आ, की न जाने तुझ बिन कब से
रूह है लाशां, जिस्म है मदफ़न
काम अधूरा नाम आज़ादी
नाम बड़े और थोड़े दर्शन
रहमत होगी ग़ालिब-ए-इसियाँ
रश्क़ करेगी पाक-ए-दामन
काँटों का भी हक है आखिर
कौन छुड़ाए अपना दामन
1 comments:
sangrahniya ...abhar .
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