सभी दोस्तों को दीपावली की मंगलकामनाएं .....
हर जगह धूम है दिवाली की .... आप के posts पढ़ कर मौसम और मौक़े का ख़ुमार तेज़तर हो रहा है ...
लिख पाना अक्सर भारी पड़ता है मुझ पर .... लेकिन जो अपने हक़ में है वो तो कर ही रहा हूँ .....
एक शेर याद आता है :
"ज़ब्त करना सख्त मुश्किल है तड़पना सह्ल है
अपने बस का काम कर लेता हूँ आसाँ जानकर"
सह्ल = आसान
तो अपने बस का काम कर रहा हूँ ... इसी में मस्त हूँ ..... आप भी सुनिए मल्लिका पुखराज की आवाज़ में एक ग़ज़ल ............
ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं
तुझ से लिपट पड़ेंगे, दीवाने आदमी हैं
गै़रों की दोस्ती पर क्यों ऐतबार कीजे
ये दुश्मनी करेंगे, बेगाने आदमी हैं
तुम ने हमारे दिल में घर कर लिया तो क्या है
आबाद करते... आख़िर वीराने आदमी हैं
क्या चोर हैं जो हम को दरबाँ तुम्हारा टोके
कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं
Monday, October 27, 2008
दीवाने आदमी हैं ....
Posted by अमिताभ मीत at 10:02 PM 9 comments
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Wednesday, October 22, 2008
नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
"फ़ैज़" साहब की ग़ज़ल हो और आबिदा परवीन की आवाज़, तो माहौल कुछ अलग-सा बन जाता है. पेश है एक ग़ज़ल ...........
आबिदा परवीन - फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"
"नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही"
नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
न तन में खून फ़राहम है न अश्क आंखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही
किसी तरह तो जमे बज़्म मैक़दे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही
गर इंतज़ार कठिन है तो जब तक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ्तगू ही सही
दयार-ए-गै़र में मरहम अगर नहीं कोई
तो "फैज़" ज़िक्र-ए-वतन अपने रूबरू ही सही
Posted by अमिताभ मीत at 6:21 AM 7 comments
Labels: आबिदा परवीन, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
Friday, October 17, 2008
ये ज़िन्दगी तो मुहब्बत की ज़िन्दगी न हुई
सुख़नसाज़ पर पिछले दिनों एक बेहतरीन वीडियो के ज़रिये उस्ताद मेहंदी हसन साहब से जिस तरह की मुलाक़ात हुई वह रोंगटे कर देने वाली थी. क्या बला की सी सादगी और इतनी सिनीयरटी होने के बावजूद एक तालिब ए इल्म बने रहने का अंदाज़...हाय ! लगता है अल्लाताला ने इन महान फ़नक़ारों की घड़ावन अपने ख़ास हाथों से की है.
(वरना थोड़ा सा रेंक लेने वाले भांड/मिरासी भी मुझसे कहते है भैया एनाउंसमेंट करते वकत हमारे नाम के आगे जरा उस्ताद लगा दीजियेगा) शिद्दत से ढूँढ रहा था एक ऐसी ग़ज़ल जो तसल्ली और सुक़ून के मेयार पर ठहर सी जाती हो. क्या है कि उस्ताद जी को सुनने बैठो तो एक बड़ा ख़तरा सामने रहता है और वह यह कि उन्हें सुन लेने के बाद रूह ज़्यादा बैचैन हो जाती है कि अब सुनें तो क्या सुनें...? मीत भाई,शायदा आपा,पारूल दी,सिध्दू दा और एस.बी सिंह साहब कुछ मशवरा करें क्या किया जाए.न सुनें तो चैन नहीं ...सुन लेने के बाद भी चैन नहीं...
हाँ एक बात बहुत दिनों से कहने को जी बेक़रार था. आज कह ही देता हूँ.उस्ताद मेहंदी हसन को सुनने के लिये क्या कीजे कि शायरी का जादू और आवाज़ का कमाल पूरा का पूरा ज़हन में उतर जाए...बहुत सोचा था कभी और जवाब ये मिला था कि सबसे पहले तो अपने आप को बहुत बड़ा कानसेन भी न समझें.समझें कि उनकी क्लास में आज ही भर्ती हुए हैं और ग़ज़ल दर ग़ज़ल दिल नाम की चीज़ को एकदम ख़ाली कर लें (आप कहेंगे ये तो रामदेव बाबा की तरह कपालभाती सिखा रहा है) आप देखेंगे कि जो स्टेटस ध्यान के दौरान बनता है वह मेहंदी हसन साहब बना देते हैं.दुनिया जाए भाड़ में;पूरे आलम में बस और बस मेहंदी हसन तारी होते हैं.यक़ीन न आए तो ये ग़ज़ल सुन लीजिये वरना बंदा जूते खाने को तैयार है.
Posted by sanjay patel at 10:00 AM 8 comments
Labels: ग़ज़ल., मेहंदी हसन
Monday, October 13, 2008
क्या ख्वाब था वो जिसकी ताबीर नज़र आई - आबिदा
कभी कभी देर रात या सुबह सुबह जब ये आवाज़ सुनता हूँ तो किसी और जहाँ में चला जाता हूँ ..... और ये ग़ज़ल भी कुछ ऐसी ही है ...
आप भी सुनें आबिदा परवीन की आवाज़ में ये ग़ज़ल :
Posted by अमिताभ मीत at 6:54 AM 2 comments
Friday, October 10, 2008
कैसे तैयार हुई "कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की"
मेहदी हसन की आवाज़ में राग दरबारी में गाई गई परवीन शाकिर की मशहूर ग़ज़ल "कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की" आप पहले भी सुन चुके हैं. आज सुनिये उस्ताद ख़ान साहेब मेहदी हसन से इस ग़ज़ल की अद्भुत रचना-प्रक्रिया के बारे में.
सात-आठ मिनट के इस वीडियो में उस्ताद आपको ग़ज़ल-गायन की विशिष्ट बारीकियों से रू-ब-रू कराते चलते हैं. शायरी को इज़्ज़त बख़्शने का पहला क़ायदा भी इसे समझा जा सकता है.
एक गुज़ारिश यह है कि पहले पूरा वीडियो अपलोड हो जाने दें. तभी आप इस बातचीत का मज़ा ले पाएंगे
Posted by Ashok Pande at 7:27 PM 4 comments
Labels: मेहदी हसन
Thursday, October 9, 2008
आमी चीनी गो चीनी - "गुरदेव"
एक ज़माने से कलकत्ते में रहते रहते कुछ बांग्ला गीत दिल-ओ-दिमाग़ पे छा गए हैं ..... कहते हैं संगीत को किसी भाषा विशेष से कोई ख़ास मतलब नहीं ...... संगीत भाषाओं की ज़द से परे अपना असर सब के दिलों पर एक सा करता है.
आज सुनिए गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर की ये Composition - आवाज़ है शकुन्तला बरुआ की ...
Posted by अमिताभ मीत at 2:00 PM 4 comments
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Monday, October 6, 2008
सुमना रॉय की खनकती आवाज़ में ग़ालिब का क़लाम !
भोपाल में रहती थीं सुमना रॉय.आकाशवाणी से कुछ नायाब रचनाएँ रेकॉर्ड करने के बाद अनायास करियर में एक बेहतरीन मोड़ आया और रोशन भारती के साथ सुमना दी को टाइम्स म्युज़िक बैनर तले बाबा ग़ालिब और दाग़ की ग़ज़लों को रेकॉर्ड करने का मौक़ा मिला. ज़िन्दगी में आई ये बहार वाक़ई सुमना दी की ज़िन्दगी में एक ख़ूबसूरत मोड़ ले आई थी. टाइम्स जैसा प्रतिष्टित बैनर,अख़बारों और टीवी चैनल्स पर चर्चे.हाँ इन्हीं दिनों सुमना दी रंगकर्म की ओर भी लौटीं थी. सब कुछ ठीक चल पड़ा था.
मंच इतनी जीवंत कि जैसे ग़ज़ल नहीं गा रहीं हैं आपसे बतिया रहीं हो.बेतक़ल्लुफ़ और आत्म-विश्वास से भरी पूरी.
कई कार्यक्रम एंकर किये उनके और हमेशा एक छोटे भाई सा स्नेह देतीं रहीं वे मुझे. मेरी तमाम मसरूफ़ियात के बावजूद मुझे जब माइक्रोफ़ोन पर देखतीं तो कहतीं कैसे कर लेते हो भाई इतना सब.हाँ ये बताना भूल ही गया कि सुमना रॉय को मलिका ऐ ग़ज़ल बेगम अख़्तर से तालीम और सोहबत मिली थी. जब भी बेगम अख़्तर का नाम उनकी ज़ुबान आता हाथ अपने आप कान पर चला जाता , गोया अपनी उस्ताद का नाम मुँह में आ गया है;मुआफ़ कीजियेगा.
एक दिन अख़बार देखता हूँ तो ये मनहूस ख़बर पढ़ने को मिलती है
ख्यात गायिका सुमना रॉय ने आत्महत्या कर ली.
खनकती आवाज़ और लाजवाब अंदाज़ की बेजोड़ गुलूकारा का दु:खद अंत
... हुए नामवर बेनिशाँ कैसे कैसे !.
Posted by sanjay patel at 4:00 PM 11 comments
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Friday, October 3, 2008
सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को
जनाब अहसान दानिश की ग़ज़ल पेश है ख़ान साहब की अतुलनीय आवाज़ में.:
न सियो होंट, न ख़्वाबों में सदा दो हम को
मस्लेहत का ये तकाज़ा है भुला दो हम को
हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब
हां अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को
मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
बैठ जाएंगे जहां चाहे बिठा दो हम को
Posted by Ashok Pande at 8:46 PM 4 comments
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Thursday, October 2, 2008
एक दिया है जो अंधेरे में जला रख्खा है
जब उस्ताद गा रहे हैं तो शब्द का वज़न क़ायम न रहे ऐसा मुमकिन ही नहीं.मेहंदी हसन साहब ने ज़िन्दगी के पचास से ज़्यादा बरस ग़ज़ल को सँवारते में झोंक दिये .उन्होंने महज़ ग़ज़ल गाई ही नहीं एक माली की तरह मौसीक़ी की परवरिश की. वे शास्त्रीय संगीत के इतने बड़े जानकार हैं कि राग-रागिनियाँ जिनकी बाँदी बनकर उनके गले की ग़ुलामी के लिये हर चंद तैयार रहती हैं लेकिन फ़िर भी वे ग़ज़ल गाते वक़्त जिस तरह से शायर की बात को बरतते हैं वह लासानी काम है.यही वजह है कि ग़ज़ल का यह बेजोड़ गुलूकार अपनी ज़िन्दगी में ही एक अज़ीम शाहकार बन गया है.
आइये मुलाहिज़ा फ़रमाइये एक बेमिसाल बंदिश जिसमें मेहंदी हसन घराने के वरक़ जगमगा उट्ठे हैं.
Posted by sanjay patel at 3:00 PM 8 comments
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