हुमैरा चन्ना से सुनिये मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल:
आईना क्यों न दूं, कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहां से लाऊं, कि तुझ सा कहें जिसे
हसरत ने ला रखा, तिरी बज़्म-ए-ख़याल में
गुलदस्त-ए-निगाह- सुवैदा कहें जिसे
सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डालिये
वह एक मुश्त-ए-ख़ाक, कि सहरा कहें जिसे
फूंका है किसने गोश-ए-मोहब्बत में अय ख़ुदा
अफ़्सून-ए-इन्तेज़ार, तमन्ना कहें जिसे
(गुलदस्त-ए-निगाह: निगाह का गुलदस्ता, सुवैदा: दिल का काला दाग, हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी: दर ब दर मारे फिरने की अधिकता, मुश्त-ए-ख़ाक: एक मुट्ठी मिट्टी, सहरा: रेगिस्तान, गोश-ए-मोहब्बत: प्रेम अर्थात प्रेमी के कान, अफ़्सून-ए-इन्तेज़ार: प्रतीक्षा का जादू)
Thursday, April 10, 2008
आईना क्यों न दूं, कि तमाशा कहें जिसे
Posted by Ashok Pande at 3:05 PM 3 comments
Labels: मिर्ज़ा ग़ालिब, हुमैरा चन्ना
उस्ताद हामिद अली ख़ान साहब की आवाज़ में मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल
फ़िलहाल मैं इस ब्लॉग पर लगाई गई पिछली ग़ज़लों को दुबारा एक एक कर लगाने का प्रयास करूंगा और समय समय पर नई ग़ज़लें भी.
इसी क्रम में पेश है उस्ताद हामिद अली ख़ान साहब की आवाज़ में मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल 'ग़ुंचा-ए-ना-शिगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यों'
ग़ुंचा-ए-ना-शिगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यों
बोसे को पूछता हूं मैं, मुंह से मुझे बता कि यों
रात के वक़्त मै पिये, साथ रक़ीब को लिये
आये वो यां ख़ुदा करे, पर न करे ख़ुदा कि यों
ग़ैर से रात क्या बनी, यह जो कहा कि देखिये
सामने आन बैठना, और ये देखना कि यों
मुझ से कहा जो यार ने, जाते हैं होश किस तरह
देख के मेरी बेख़ुदी, चलने लगी हवा, कि यों
मैंने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिये ग़ैर से, तिही
सुन के सितम ज़रीफ़ ने मुझको उठा दिया, कि यों
(ग़ुंचा-ए-नाशिगुफ़्ता: अनखिली कली, बोसा: चुम्बन, बज़्म-ए-नाज़: माशूक की महफ़िल, तिही: ख़ाली, सितम ज़रीफ़: जिसके अत्याचार में भी परिहास हो)
Posted by Ashok Pande at 2:42 PM 0 comments
Labels: उस्ताद हामिद अली ख़ान, मिर्ज़ा ग़ालिब
नया सुख़नसाज़ : पहली पोस्ट - दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
सुख़नसाज़ पहले शुरू किया था तो कुछ कारणों के चलते बन्द करना पड़ा था. दुबारा उसे पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया तो पहले जिस टैम्प्लेट को मैंने इस्तेमाल किया वह देखने में तो सुन्दर था लेकिन उस में तकनीकी दिक्कतें बहुत ज़्यादा थीं जैसे कि नई पोस्ट बनाने का विकल्प मुख्य पन्ने में नहीं था. तंग आकर मैंने दुबारा से ब्लॉगर के एक डिफ़ॉल्ट टैम्प्लेट को छांटा तो वह बहुत बदसूरत हो गया. उस में फ़ॉन्ट का साइज़ बुरी तरह बिगड़ गया था और कई तरह के तकनीकी विशेषज्ञों से राय लेने के बावजूद उसका कुछ बन नहीं पा रहा था.
मैं दिली तौर पर चाहता हूं कि 'सुख़नसाज़' को चलाता रहूं. सो अब पिछले वाले को पूरी तरह समाप्त करने के बाद इसे नया बना दिया है.
शुरुआत के लिये प्रस्तुत है मेहदी हसन साहब और तरन्नुम नाज़ के स्वरों में मिर्ज़ा ग़ालिब की गज़ल "दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई"
दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामन्द कर गई
वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ
उठिये बस अब के लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
मस्ती से हर निगह तेरे रुख़ पर बिखर गई
देखो तो दिल फ़रेबि-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई
Posted by Ashok Pande at 10:38 AM 4 comments
Labels: तरन्नुम नाज़, मिर्ज़ा ग़ालिब, मेहदी हसन