Friday, October 18, 2013

माना कि तुम कहा किये और वो सुना किये


मिर्ज़ा असदुल्ला खां ‘ग़ालिब’ की ग़ज़ल को आवाज़ दी है तलत महमूद ने. 

उस बज्म मे मुझे नहीं बनती हया किए
बैठा रहा अगरचे इशारे हुआ किये

किस रोज़ तोहमते न तराशा किये अदू
किस दिन हमारे सर पे न आरे चला किये

ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उस ने सैकड़ों वादे-वफ़ा किये

ग़ालिब तुम्हीं कहो के मिलेगा जवाब क्या
माना कि तुम कहा किये और वो सुना किये



तलत साहब ने ग़ज़ल के यही चार शेर गाये हैं . यह रही पूरी ग़ज़ल

उस बज़्म मे मुझे नहीं बनती हया किए
बैठा रहा अगरचे इशारे हुआ किये

दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
मैं और जाऊं दर से तेरे बिन सदा किये

रखता फिरूं हूँ ख़िरक़ा-ओ-सज्जादा रहन-ए-मै
मुद्दत हुई है दावत-ए-आबो-ओ-हवा किये

बे-सरफ़ा ही गुज़रती है, हो गर्चे उम्रे-ख़िज़्र
हज़रत भी कल कहेंगे कि हम क्या किया किये

मक़दूर हो तो ख़ाक से पूछूँ कि अय लईम
तूने वो गंजा-हाए गिराँ-माया क्या किये

किस रोज़ तोहमतें न तराशा किए अदू
किस दिन हमारे सर पे न आरे चला किये

सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
देने लगा है बोसा बग़ैर इल्तिजा किये

ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उस ने सैकड़ों वादे-वफ़ा किये

ग़ालिबतुम्हीं कहो के मिलेगा जवाब क्या

माना कि तुम कहा किये और वो सुना किये

Thursday, October 17, 2013

बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं


ग़ज़ल नासिर काज़मी की. उस्ताद मेहदी हसन खान की वही मखमल आवाज़.



वो दिलनवाज़ है लेकिन नज़रशनास नहीं
मेरा इलाज मेरे चारागर के पास नहीं

कभी कभी जि तेरे क़ुर्ब में गुज़ारे थे
अब उन दिनों का तसव्वुर भी मेरे पास नहीं

गुज़र रहे हैं अजब मरहलों से दीदा-ओ-दिल
सहर की आस तो है, ज़िन्दगी की आस नहीं

मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाए
बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं

Wednesday, October 16, 2013

दिल के ज़ख्म दिखा कर हमने, महफ़िल को गरमाया है


१९८६ में उस्ताद मेहदी हसन ने फरहत शाहज़ाद की चुनिन्दा ग़ज़लों को एक बिलकुल नए अंदाज़ में पेश किया था. ‘कहना उसे’ नाम के इस शानदार अलबम से कई ग़ज़लें इस ब्लॉग पर पहले से मौजूद हैं. आज उसी अलबम की एक ग़ज़ल –




क्या टूटा है अन्दर अन्दर क्यों चेहरा कुम्हलाया है
तनहा तनहा रोनेवालो कौन तुम्हें याद आया है

चुपके चुपके सुलग रहे थे, याद में उनकी दीवाने
इक तारे ने टूट के यारो, क्या उनको समझाया है

रंग बिरंगी इस महफ़िल में, तुम क्यूं इतने चुप चुप हो
भूल भी जाओ पागल लोगो, क्या खोया क्या पाया है

शेर कहाँ हैं खून है दिल का, जो लफ़्ज़ों में बिख़रा है
दिल के ज़ख्म दिखा कर हमने, महफ़िल को गरमाया है

अब शहज़ादये झूठ न बोलो, वो इतने बेदर्द नहीं
अपनी चाहत को भी परखो, गर इलज़ाम लगाया है

Tuesday, October 15, 2013

हिज्र की रात और इतनी रौशन


आज इस ब्लॉग पर आप के लिए ‘जिगर’ मुरादाबादी की ग़ज़ल है मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख्तर के स्वर में – 



कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएं एक नशेमन

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन

आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रौशन

रहमत होगी ग़ालिब-ए-इसियाँ
रस्क करेगी पाक-ए-दामन

काँटों का भी कुछ हक है आखिर
कौन छुड़ाए अपना दामन

नोट- बेग़म अख्तर ने पूरी ग़ज़ल नहीं गाई है. पूरी ग़ज़ल ये रही-


कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएं, एक नशेमन

कामिल रहबर, कातिल रहजन
दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन

उम्रें बीतीं सदियाँ गुजरीं
है वही अक्ल का बचपन

इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कार-ए-शीशा-ओ-आहन

खैर मिजाज़-ए-हुस्न की या रब
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन

आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रौशन

तुने सुलझा कर गेसू-ए-जाना
और बढ़ा दी दिल की धड़कन

चलती फिरती छाओं है प्यारे
किस का सेहरा कैसा गुलशन

, की न जाने तुझ बिन कब से
रूह है लाशां, जिस्म है मदफ़न

काम अधूरा नाम आज़ादी
नाम  बड़े और थोड़े दर्शन

रहमत होगी ग़ालिब-ए-इसियाँ
रश्क़ करेगी पाक-ए-दामन

काँटों का भी हक है आखिर

कौन छुड़ाए अपना दामन

Monday, October 14, 2013

राग पुराना तेरा भी है मेरा भी


कोई बीसेक साल पहले आए अल्बम ‘सजदा’ ने ख़ासी लोकप्रियता हासिल की थी.  शाहिद कबीर की लिखी एक ग़ज़ल लता मंगेशकर और जगजीत सिंह ने साथ ग़ा कर मशहूर की थी. आज सुख़नसाज़ यही पेश करता है आपके वास्ते –



ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी
ते नज़राना तेरा भी है मेरा भी

अपने ग़म को गीत बना कर ग़ा लेना
राग पुराना तेरा भी है मेरा भी

तू मुझको और मैं तुझको समझाऊँ क्या
दिल दीवाना तेरा भी है मेरा भी

शहर में गलियों गलियों जिसका चर्चा है
वो अफ़साना तेरा भी है मेरा भी

मैख़ाने की बात न कर वाइज़ मुझसे
आना जान तेरा भी है मेरा भी

Sunday, October 13, 2013

इक उम्र का रोना है दो दिन की शनासाई


ग़ज़ल शहज़ाद अहमद शहज़ाद की है. और आवाज़ खानसाहेब मेहदी हसन खान साहेब की-



जल भी चुके परवाने हो भी चुकी रुसवाई
अब ख़ाक उड़ाने को बैठे है तमाशाई

तारों की ज़िया दिल में इक आग लगाती है
आराम से रातों को सोते नहीं सौदाई

रातों की उदासी में ख़ामोश है दिल मेरा
बेहिस हैं तमन्नाएं नींद आई के मौत आई

अब दिल को किसी करवट आराम नहीं मिलता
इक उम्र का रोना है दो दिन की शनासाई

Saturday, October 12, 2013

फिर मेरे आग़ोश में गिर जाइये

दो ढाई साल की उम्र से गाना शुरू कर देने वाले और मात्र चौदह साल की नन्ही आयु में स्वर्गवासी हो गए मास्टर मदन की प्रतिभा का लोहा स्वयं कुन्दन लाल सह्गल ने भी माना था. उनका जन्म २८ दिसम्बर १९२७ को जलन्धर के एक गांव खा़नखा़ना में हुआ था, जो प्रसंगवश अकबर के दरबार की शान अब्दुर्ररहीम खा़नखा़ना की भी जन्मस्थली था. ५ जून १९४२ को हुई असमय मौत से पहले उनकी आवाज़ में आठ रिकार्डिंग्स हो चुकी थीं. 


ये ग़ज़ल गुलज़ार और जगजीत सिंह की कमेन्ट्री के साथ कुछ साल पहले एच एम वी द्वारा 'फ़िफ़्टी ईयर्स आफ़ पापुलर गज़ल' के अन्तर्गत जारी हुई थी. जगजीत सिंह के मुताबिक मास्टर मदन सिर्फ़ तेरह साल जिए लेकिन यह सत्य नहीं है. इस के अलावा इस अल्बम में बताया गया है कि इन गज़लों का संगीत मास्टर मदन का है. यह भी सत्य नहीं है. ये गज़लें १९३४ में रिकार्ड की गई थीं यानी तब उनकी उम्र ७ साल थी. असल में इन गज़लों को १९४७ में 'मिर्ज़ा साहेबां' फ़िल्म का संगीत देने वाले पं अमरनाथ ने स्वरबद्ध किया था. सागर निज़ामी की इन गज़लों में मास्टर मदन की आवाज़ का साथ स्वयं पं अमरनाथ हार्मोनियम पर दे रहे हैं. तबले पर हीरालाल हैं और वायलिन पर मास्टर मदन के अग्रज मास्टर मोहन:




यूं न रह रह के हमें तरसाइए
आइये, आ  जाइये, आ जाइये

फिर वही दानिश्ता ठोकर खाइये
फिर मेरे आग़ोश में गिर जाइये

मेरी दुनिया मुन्तज़िर है आपकी
अपनी दुनिया छोड़ कर आ जाइये

ये हवा 'साग़र' ये हल्की चांदनी
जी में आता है यहीं मर जाइये