Tuesday, October 15, 2013

हिज्र की रात और इतनी रौशन


आज इस ब्लॉग पर आप के लिए ‘जिगर’ मुरादाबादी की ग़ज़ल है मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख्तर के स्वर में – 



कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएं एक नशेमन

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन

आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रौशन

रहमत होगी ग़ालिब-ए-इसियाँ
रस्क करेगी पाक-ए-दामन

काँटों का भी कुछ हक है आखिर
कौन छुड़ाए अपना दामन

नोट- बेग़म अख्तर ने पूरी ग़ज़ल नहीं गाई है. पूरी ग़ज़ल ये रही-


कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएं, एक नशेमन

कामिल रहबर, कातिल रहजन
दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन

उम्रें बीतीं सदियाँ गुजरीं
है वही अक्ल का बचपन

इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कार-ए-शीशा-ओ-आहन

खैर मिजाज़-ए-हुस्न की या रब
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन

आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रौशन

तुने सुलझा कर गेसू-ए-जाना
और बढ़ा दी दिल की धड़कन

चलती फिरती छाओं है प्यारे
किस का सेहरा कैसा गुलशन

, की न जाने तुझ बिन कब से
रूह है लाशां, जिस्म है मदफ़न

काम अधूरा नाम आज़ादी
नाम  बड़े और थोड़े दर्शन

रहमत होगी ग़ालिब-ए-इसियाँ
रश्क़ करेगी पाक-ए-दामन

काँटों का भी हक है आखिर

कौन छुड़ाए अपना दामन

1 comments:

Anupama Tripathi said...

sangrahniya ...abhar .