Wednesday, October 16, 2013

दिल के ज़ख्म दिखा कर हमने, महफ़िल को गरमाया है


१९८६ में उस्ताद मेहदी हसन ने फरहत शाहज़ाद की चुनिन्दा ग़ज़लों को एक बिलकुल नए अंदाज़ में पेश किया था. ‘कहना उसे’ नाम के इस शानदार अलबम से कई ग़ज़लें इस ब्लॉग पर पहले से मौजूद हैं. आज उसी अलबम की एक ग़ज़ल –




क्या टूटा है अन्दर अन्दर क्यों चेहरा कुम्हलाया है
तनहा तनहा रोनेवालो कौन तुम्हें याद आया है

चुपके चुपके सुलग रहे थे, याद में उनकी दीवाने
इक तारे ने टूट के यारो, क्या उनको समझाया है

रंग बिरंगी इस महफ़िल में, तुम क्यूं इतने चुप चुप हो
भूल भी जाओ पागल लोगो, क्या खोया क्या पाया है

शेर कहाँ हैं खून है दिल का, जो लफ़्ज़ों में बिख़रा है
दिल के ज़ख्म दिखा कर हमने, महफ़िल को गरमाया है

अब शहज़ादये झूठ न बोलो, वो इतने बेदर्द नहीं
अपनी चाहत को भी परखो, गर इलज़ाम लगाया है

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