Sunday, June 28, 2009

इक दीया है जो अंधेरों में जला रखा है - मेहंदी हसन


मैंने एंकरिंग करते हुए देखा है कि कई बार फ़नकार ग़ज़ल गाते गाते एकदम अगला मतला भूल जाता है. गाना शुरू किया था बिना डायरी देखे क्योंकि बहुत गाई हुई चीज़ है लेकिन गाने में कुछ ऐसा मन लग गया कि शब्द बिसरा बैठे . तो ऐसे में सुनकार से अच्छा आसरा कोई और नहीं होता क्योंकि उसे तो अपने महबूब गायक की ग़ज़ल के बोल मिसरा-दर मिसरा याद होते हैं.

उस्ताद मेहंदी हसन साहब आज फ़िर सुख़नसाज़ की जाजम पर तशरीफ़ ला रहे हैं और ग़ज़ल कुछ ऐसी है कि मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि वह उस्तादजी को याद हो न, आप-हम सुनने वालों को ज़रूर याद होगी. तो बस इतनी ही भूमिका है आज की इस पेशकश में..
जी हाँ ;बिलाशक आप भी साथ साथ गाइये. जहाँ मानसून आ चुका है वहाँ तो इस ग़ज़ल को सुनने का मज़ा है ही और जहाँ मेघराज आने में इतरा रहे हैं,इस ग़ज़ल के बजने के बाद शायद मेहंदी हसन साहब की महफ़िल में शरीक़ हो जाएँ ; इंशाअल्ला !


Monday, June 22, 2009

गुज़ारिश : एक नई आवाज़ में रंजिश ही सही !


टाइम्स म्युज़िक हमेशा श्रोताओं के लिए कुछ नयापन लेता आया है। हाल ही में उसने जाने-माने युवा ग़ज़ल गायक मो. वक़ील की आवाज़ में गुज़ारिश नाम से एक बड़ा प्यारा एलबम जारी किया है। नई आवाज़ों को सुनने में हम संगीतप्रेमी थोड़े आलसी ही रहे हैं तो इस आदत को भाँपते हुए टाइम्स म्युज़िक ने एक बड़ी सुरीली पहल की है। इसके तहत गुज़ारिश एलबम में मो. वक़ील ने उन ग़ज़लों को गाया है जिनको हम पिछले 40-45 बरसों में निरंतर सुनते आए हैं। कभी रेडियो पर, कभी लाइव या कभी अपने प्रायवेट म्युज़िक कलेक्शन के ज़रिये। गुज़ारिश में शुमार आवाज़े भी उन महबूब गुलूकारों की हैं जो हम सबके दिल के बहुत क़रीब रहे हैं यानी बेग़म अख़्तर, मेहॅंदी हसन, फ़रीदा ख़ानम, लता मंगेशकर, ग़ुलाम अली, जगजीत सिंह और अहमद हुसैन-मो. हुसैन।

मो. वक़ील एक ऐसी उभरती हुई आवाज़ हैं जिनकी कहन में पुराने और नये अंदाज़ का कलेवर दमकता दिखाई देता है। इसकी दो वजह है; एक तो उनकी पैदाइश सन् 1976 की है और दूसरा उनकी तालीम उस्ताद अहमद हुसैन और मो. हुसैन के सान्निध्य में हुई है जो ग़ज़ल गायकी के ऐसे नुमाइंदे हैं जिन्होंने पारंपरिक गायन का दामन कभी नहीं छोड़ा है। यही वजह है कि मो. वक़ील की आवाज़ में एक रूहानी फ़िरत है। इस एलबम में वे अज़ीम फ़नकारों को दोहराते ज़रूर हैं लेकिन उन्होंने अपना मौलिक अंदाज़ भी बरक़रार रखा है। वक़ील भाई की आवाज़ में एक सुरीला घुमाव है जो उन्हें नई आवाज़ों की भीड़ में एक अलग पहचान देता है.हाँ ये भी बता दूँ कि किसी बात को अपनी तरह से कहने की उपज भी मो.वक़ील में भी बड़ी लाजवाब रही है.

टी.वी.एस. सारेगामा फ़ायनल (1997) और टी.वी.एस. सारेगामा मेगा फ़ायनल (1998) के विजेता के रूप में मो. वक़ील संगीत परिदृश्य पर उभरकर आए और उसके बाद वे लगातार अपनी मंज़िल की ओर अग्रसर हैं। सन् 2006 उनके लिए बड़ा मक़बूल रहा जब उन्हें वीर-ज़ारा में स्व. मदन मोहन की कम्पोज़िशन को गाने का अवसर मिला।

गुज़ारिश का कायाकल्प जानी-मानी कंपोज़र मंजू नारायण ने किया है। उन्होंने मूल कंपोज़ीशन्स की रूह को क़ायम रखा है और मो. वक़ील की आवाज़ में उभरकर आने वाले तत्वों को और बेहतर बनाने की कोशिश की है। उम्मीद है कि गुज़ारिश आपको सुकून देगी।


मो.वक़ील के इस नए एलबम में पहली रचना उस्ताद मेहंदी हसन साहब के प्रति एक आदरांजलि है.ग़ज़ल आप-हम की जानी पहचानी और गुनगुनाई हुई...रंजिश ही रही दिल ही दुखाने के लिये आ...मुलाहिज़ा फ़रमाएँ.

Wednesday, June 17, 2009

मरने की दुआएँ क्यों माँगू;जीने की तमन्ना कौन करे


वली मोहम्मद सुख़नसाज़ के मुरीदों के लिये अनजाना नाम नहीं है.
उन्हें सुनें तो लगता है जैसे सहरा में एक बाबा बाजा लेकर बैठ गए हैं और
कन्दील की मध्दिम रोशनी में आपको मनचाही बंदिशें सुना रहे हैं.
सनद रहे वली मोहम्मद जैसे गुलूकार तब परिदृश्य पर आए थे जब ज़माने
की गति ऐसी तूफ़ानी और बेपरवाह नहीं थी. सुक़ून और तसल्ली के दौर
के गायक रहे हैं वली मोहम्मद. उम्दा क़लाम को चुनना, गुनना और फ़िर गाना
उस दौर की ख़ासियत थी. मेरा प्यारा वतन मालवा इन दिनों ख़ासा उमस
भरा है;ऐसे में ऐसी रचना सुनना एक अलग रूहानी अहसास देता है.
मुलाहिज़ा फ़रमाएँ बाबा वली मोहम्मद की ये बेशक़ीमती रचना.


Wednesday, June 3, 2009

ख़ुशबू तुम्हारी ज़ुल्फ़ की फूलों से कम नहीं !


ग़ज़ल के जगमगाते कलश कंठ से जब कोई रचना झर रही हो तो लगता है जीवन के बाक़ी सुखों की तलाश बेमानी है. छोटी से रचना है उस्ताद मेहंदी हसन साहब की गाई हुई लेकिन इतने में भी वे बता देते हैं कि वे किस बलन के फ़नकार हैं.आलाप से ही जाँच लीजिये कि क्या तसल्ली है किसी बंदिश को डिज़ाइन करने की. उस्तादजी के बारे में सारी प्रशंसाएँ छोटी पड़ जाएं तो लगता है उनके हाथ का बाजा (हारमोनियम) ही सुन लीजै. हाय ! क्या रवानी है रीड्स पर . कितने हैं जो ख़ुद गाते हुए इस सहजता से बाजा बजाते जाते हैं.उस्ताद के बारे में यह कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा कि वे बित्ती सी रचना को करिश्मा बनाने का हुनर रखते हैं.अब इस रचना का क्राफ़्ट ही देख लीजियेगा...बड़ा सादा है लेकिन मेहंदी हसन हैं जनाब कि शायर के दामन के लिये दाद बटोर लेते हैं.



हाँ एक ख़ास बात बताता चलूँ ? भारतरत्न लता मंगेशकर तनहाई में जिस एकमात्र गायक की रचनाएँ सुनना पसंद करती हैं उसका नाम मेहंदी हसन है.