कुंदन स्वर से पगी के.एल.सहगल की आवाज़ एशिया महाव्दीप का वह पावन स्वर है जिसका आसरा लेकर ग़ज़ल फली-फूली. सहगल साहब ने जिन हालात में अपनी गायकी को पाला-पोसा वह कहानी अपने आप में किसी जासूसी उपन्यास से कम रोमांचक नहीं. बिना किसी तालीम के सहगल साहब स्वर की यायावरी करते रहे और संगीत का अलख जगाते रहे. उत्तर भारत में उर्दू घर-घर की ज़ुबान रही है बल्कि स्कूलों में प्राथमिक शालाओं और घर पर आने वाले मौलवी साहबों से मिली दीक्षाओं का दामन थामकर उर्दू को विस्तार मिला. कई कूपमण्डूक कहते हैं कि भाई हिन्दी और उर्दू अलग भाषाएं हैं लेकिन ये नासमझ नहीं जानते कि अमीर ख़ुसरो के दौर से इस देश की गंगा-जमनी तहज़ीब को हिन्दी बाद में और हिन्दवी पहले मिली है जिसमें ज़ुबान का शीरींपन दस्तयाब रहा है.
जनश्रुति है कि सहगल साहब आफ़ताब ए मौसीक़ी उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ के शागिर्द थे लेकिन इन्दौर में रहने वाले एक वरिष्ठ संगीत संकलनकर्ता और शोधार्थी श्री जयंत डांगे का कहना है कि जगह जगह यह पूछा जाता था कि सहगल साहब आपने किससे सीखा या आपका ताल्लुक किस घराने से है तो इस बात से झुंझलाकर एक बार सहगल साहब ने उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब से गंडा बंधवा लिया था. ख़ैर महान कलाकारों के हज़ारों मुरीद और करोड़ों क़िस्से..इन बातों से सहगल साहब और उनकी शहद भीगी गायकी उनके लिये हमारी दीवानगी का क्या लेना-देना.
बहरहाल हम सहगल साहब की बात कर रहे थे . वे जलंधर,शिमला,दिल्ली,कोलकाता से मुम्बई पहुँचे और गायकी का झण्डा करोड़ों संगीतप्रेमियों के दिलों में गाड़ दिया. सहगल साहब की गायकी का सफ़र सिर्फ़ फ़िल्मी रचनाओं तक महदूद नहीं है उसमें कुछ अनमोल बांग्ला रचनाएं और ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लें भी समाहित हैं. बहुत दिन हुए सुखनसाज़ पर आए हुए..सोचा इस अबोले को तोड़ने के लिये सहगल साहब से बेहतर आवाज़ और क्या हो सकती है. हाँ यह कहना चाहूँगा कि मुझ जैसे अनंत संगीतप्रेमियों को ग़ज़ल की लज़्ज़त चखवाने का काम सबसे पहले के.एल.सहगल ने किया...बेग़म अख़्तर,तलत महमूद और मेहंदी हसन ने उसे और मीठा बनाया. पेश ए ख़िदमत है ग़ालिब का कलाम !
'राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा’ : मीना कुमारी की याद
में
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मीना आपा के भीतर कोई चंचल-शोख़ और मन की उड़ान भरती कोई बेफिक्र लड़की रही
होगी...शायद कभी...क्या पता।
पर उनके जीवन पर उदासी का ग्रहण इतना गहरा था कि व...
2 years ago
3 comments:
बडे दिनों बाद ये आमद दिलीसुकूं दे गयी.
आते रहिये, सुनाते रहिये , और सत्संग का आनंद लेते रहिये, देते रहिये!!
सहगल साहब का खास अंदाज़ इस ग़ज़ल में भी दिखाई दे रहा है. उनके गुरु जो भी रहे हों,कई गुणी कला्कारों के गुरु थे वे.
कानों में शहद घोल दिया.बहुत खूब.
अगर और जीते रहते, यही इन्तेज़ार होता…
इन्तेज़ार रहेगा, इसी तरह की रस-पगी अगली पोस्ट का……
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