Thursday, April 10, 2008

नया सुख़नसाज़ : पहली पोस्ट - दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई

सुख़नसाज़ पहले शुरू किया था तो कुछ कारणों के चलते बन्द करना पड़ा था. दुबारा उसे पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया तो पहले जिस टैम्प्लेट को मैंने इस्तेमाल किया वह देखने में तो सुन्दर था लेकिन उस में तकनीकी दिक्कतें बहुत ज़्यादा थीं जैसे कि नई पोस्ट बनाने का विकल्प मुख्य पन्ने में नहीं था. तंग आकर मैंने दुबारा से ब्लॉगर के एक डिफ़ॉल्ट टैम्प्लेट को छांटा तो वह बहुत बदसूरत हो गया. उस में फ़ॉन्ट का साइज़ बुरी तरह बिगड़ गया था और कई तरह के तकनीकी विशेषज्ञों से राय लेने के बावजूद उसका कुछ बन नहीं पा रहा था.

मैं दिली तौर पर चाहता हूं कि 'सुख़नसाज़' को चलाता रहूं. सो अब पिछले वाले को पूरी तरह समाप्त करने के बाद इसे नया बना दिया है.

शुरुआत के लिये प्रस्तुत है मेहदी हसन साहब और तरन्नुम नाज़ के स्वरों में मिर्ज़ा ग़ालिब की गज़ल "दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई"




दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामन्द कर गई

वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ
उठिये बस अब के लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई

नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
मस्ती से हर निगह तेरे रुख़ पर बिखर गई

देखो तो दिल फ़रेबि-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई

4 comments:

Girish Kumar Billore said...

kuchh bhee ho saheb zaree rahe

पारुल "पुखराज" said...

waah..yahan aakar to tabiyat mast ho gayi

Udan Tashtari said...

वाह जी वाह!! बहुत खूब गज़ल लाये हैं सुनवाने.

रंजू भाटिया said...

बहुत ही खुबसूरत ..पहली बार सुना अच्छा लगा