Tuesday, October 11, 2011

उसके होने से क़ायम थी सुर की आस



ग़ज़ल का सुनने का शौक़ हो और आपने जगजीतसिंह का नाम न सुना हो ऐसा मुमकिन नहीं. इस आवाज़ ने एशिया महाद्वीप में तलत मेहमूद,बेग़म अख़्तर,के.एल.सहगल और मेहंदी हसन के बाद सबसे ज़्यादा मकबूलियत हासिल की. यूँ शुरूआत में वे फ़िल्म संगीत से ख़ासे मुतास्सिर थे लेकिन उनकी रूह में क्लासिकल संगीत हरदम घुमड़ता रहता था. श्रीगंगानगर (राजस्थान) उस्ताद जमाल ख़ान से उन्होंने बाक़ायदा तालीम हासिल की थी.जब मुम्बई पहुँचे तो काम तो एक दम मिल नहीं सकता था जो कई कॉलेजों के रेस्टॉरेंट्स में फ़िल्मी गीत गाकर गुज़ारा किया. इसमें कोई शक नहीं कि जगजीतसिंह के मन में ग़ज़ल को लेकर एक तूफ़ान था और बतौर संगीतकार उनके मन में यह लक्ष्य स्पष्ट था कि रिवायती अंदाज़ से हट कर कुछ नया नहीं किया गया तो रही सही ग़ज़ल भी मर जाएगी. जगजीतसिंह के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों की भी बड़ी तादात है. वजह ये थी कि जगजीत क़ामयाबी की ऐसी कहानी रच चुके थे कि वे अपनी शर्त पर कंसर्ट को चलाते थे. तक़रीबन चार बार उनके लाइव कंसर्ट को एंकर करते हुए मैंने यह महसूस किया था कि वे सुनने वालों के मूड को अपने गणित से भाँपते थे और क्या गाना-क्या नहीं ख़ुद तय करते थे. उन्हें सुनने वालों की नब्ज़ का अंदाज़ अपनी पहली पेशकश से लग जाता था और मंच पर वे हर लम्हा मानसिक रूप से चैतन्य रहते थे. पुत्र विवेक की मृत्यु के बाद तबला वादक अभिनव उपाध्याय और वॉयलिन वादक दीपक पण्डित जैसे युवा कलाकारों के साथ उन्होंने अपनी टीम बनाई और पूरी दुनिया में ग़ज़ल का जादू बिखेरा.

जगजीत सिंह की सबसे बड़ी ताक़त थी अच्छी शायरी की पहचान और करिश्माई और खरज भरा स्वर जो ऐसी प्रतीति देता था मानो ये आवाज़ पाताल से गूँजती हुई हमारे कानों में आ रही है.इस बात का श्रेय भी जगजीतसिंह के माथे जाता है कि इस फ़नक़ार ने चित्रपट संगीत जैसी लोकप्रिय विधा के सामने ग़ज़ल का विराट शामियाना खड़ा किया. अस्सी और नब्बे के साल के बीच जगजीतसिंह के एलबम्स ने रेकॉर्ड तोड़ बिक्री की और किसी किसी बरस फ़िल्मी सीडियों और केसेट्स के सेल को पीछे छोड़ा.बीते तीस बरस का वक़्त ग़ज़ल के उस सुरीलेपन का दौर है जिसकी शिनाख़्त बिला शक जगजीतसिंह की ग़ज़लों से होती है. सुदर्शन फ़ाकिर,निदा फ़ाज़ली जैसे शायरों को जगजीतजी ने ख़ूब गाया और दाद बटोरी. जगजीतसिंह के भीतर गायक के साथ एक उम्दा कम्पोज़र भी हर वक़्त ज़िन्दा रहा.उनके करियर की लोकप्रियता में इस कम्पोज़र का बड़ा हाथ है और बदक़िस्मती से इस बात को कहीं ख़ासतौर पर रेखांकित भी नहीं किया गया है. गुलज़ार के टीवी धारावाहिक ग़ालिब में ज़रूर इस बात को थोड़ा बहुत महसूस किया गया लेकिन बाज़ मौक़ों पर वह कम्पोज़र जगजीत गुमनाम ही रहे.
बहरहाल जगजीतसिंह का जाना ग़ज़ल के ख़ामोशी से आँसू बहाने का दिन है. इन आँसुओं मे न केवल अपने मुहबूब गुलूकार के लिये मुहब्बत का इज़हार है बल्कि यह घबराहट भी शामिल है कि क्या जगजीतसिंह के बाद बेसुरापन अपने पाँव जमाने में क़ामयाब हो जाएगा.जगजीतसिंह आपके होने से सुर की आस जो बनी रहती थी.