हबीब वली मोहम्मद (जन्म १९२१) विभाजन पूर्व के भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख लोकप्रिय ग़ज़ल गायकों में थे. एम बी ए की डिग्री लेने के बाद वली मोहम्मद १९४७ में बम्बई जाकर व्यापार करने लगे. दस सालों बाद वे पाकिस्तान चले गए. वहीं उन्होंने बेहद सफल कारोबारी का दर्ज़ा हासिल किया. अब वे कैलिफ़ोर्निया में अपने परिवार के साथ रिटायर्ड ज़िन्दगी बिताते हैं.
बहादुरशाह ज़फ़र की 'लगता नहीं है दिल मेरा' उनकी सबसे विख्यात गज़ल है. भारत में फ़रीदा ख़ानम द्वारा मशहूर की गई 'आज जाने की ज़िद न करो भी उन्होंने अपने अंदाज़ में गाई है.
उस वक़्त के तमाम गायकों की तरह उनकी गायकी पर भी कुन्दनलाल सहगल की शैली का प्रभाव पड़ा. उनका एक तरह का सूफ़ियाना लहज़ा 'बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब, तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं' की लगातार याद दिलाता चलता है.
सुख़नसाज़ पर आपको उनकी रचना 'रातें थीं चाँदनी जोबन पे थी बहार' आपको संजय भाई सुनवा चुके हैं. यहां सुनिये उनकी गाई हुई फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की अतिप्रसिद्ध गज़ल.
तुम आये हो न शब-ए-इन्तेज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर, बार बार गुज़री है
वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था,
वो बात उन को बहुत नागवार गुज़री है
जुनूं में जितनी भी गुज़री बकार गुज़री है
अगर्चे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है
न गुल खिले हैं न उन से मिले, न मै पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है
चमन पे गारत-ए-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
कफ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है
(शब-ए-इन्तज़ार: इन्तज़ार की रात, सहर: सुबह, बकार: काम काज के साथ, ग़ारत-ए-गुलचीं: फूलों कलियों की तबाही, कफ़स: पिंजरा, सबा: भोर की हवा)
Friday, July 17, 2009
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है
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Saturday, July 4, 2009
सुख़नसाज़ की सौवीं पोस्ट
हालांकि यह ग़ज़ल पहले भी यहां सुनवाई जा चुकी है. बहुत विख्यात है. बहुत बहुत बार सुनी-सुनाई जा चुकी है मगर इस ब्लॉग की सौवीं पोस्ट के लिए मुझे यही सबसे उचित लगी.
हफ़ीज़ जालन्धरी साहब का क़लाम. उस्ताद मेहदी हसन ख़ान साहेब की वही मख़मल आवाज़ ... उफ़! ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म ...
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे
ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे
अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
तेरी फ़ुरकत के सदमे कम न होंगे
दिलों की उलझनें बढ़ती रहेंगी
अगर कुछ मशविरे बाहम न होंगे
हफ़ीज़ उनसे मैं जितना बदगुमां हूं
वो मुझ से इस क़दर बरहम न होंगे
(फ़ुरकत: विरह, बाहम: आपस में)
डाउनलोड लिंक: मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
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Friday, July 3, 2009
पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में, सामने देख के मंज़िल है तेरी तारों में
अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन बन्धुओं की ग़ज़लों को मैं सुख़नसाज़ और कबाड़ख़ाने पर पहले भी लगा चुका हूं. आज सुनिये इन्हीं से हसरत जयपुरी साहब की यह रचना
चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल
हम वहाँ जाये जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें
कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल
प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चल
अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे
अपनी चाहत पे जहाँ कोई दुश्मन न हँसे
छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत-ए-ग़ज़ल, चल
पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में
सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में
बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल, चल
चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल
(डाउनलोड लिंक: चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल)
Posted by Ashok Pande at 7:20 PM 7 comments
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