'ख़ातिर' ग़ज़नवी (1925 - 2008) बड़े शायरों में गिने जाते हैं. एक शायर होने अलावा वे शोधार्थी, कॉलमनिस्ट, शिक्षाविद भी थे. 'ख़ातिर' ग़ज़नवी प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसियेशन इन पाकिस्तान के उपाध्यक्ष भी रहे.
पचास से भी ऊपर किताबें लिख चुके 'ख़ातिर' ग़ज़नवी ने ऑल इन्डिया रेडियो और बाद में रेडियो पाकिस्तान में बतौर प्रोड्यूसर भी बहुत नाम कमाया. ख़ातिर साहब का असली नाम इब्राहीम था और वे चीनी, अंग्रेज़ी, उर्दू और मलय भाषाओं के गहरे जानकार माने जाते थे. यह बात अलहदा है कि उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति बतौर शायर ही मिली.
भारत में ग़ज़ल सुनने-सुनाने वालों को ग़ुलाम अली की गाई उनकी "कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में, बन्दे भी हो गए हैं ख़ुदा तेरे शहर में" अच्छे से याद होगी.
गज़ल के बादशाह ख़ान साहेब मेहदी हसन सुना रहे हैं उन्हीं की एक छोटी बहर की गज़ल. उस्ताद बेतरह बीमार हैं और ग़ुरबत में भी. हम सिर्फ़ उनकी कुशल की कामना भर कर सकते हैं. आज भाई संजय पटेल ने उस्ताद की एक रचना सुरपेटी पर लगाई है. जाना न भूलें.
जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
ढलते ढलते रात ढली
उन आंखों ने लूट के भी
अपने ऊपर बात न ली
शम्अ का अन्जाम न पूछ
परवानों के साथ जली
अब भी वो दूर रहे
अब के भी बरसात चली
'ख़ातिर' ये है बाज़ी-ए-दिल
इसमें जीत से मात भली
*डाउनलोड यहां से करें: जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली है
Sunday, March 29, 2009
'ख़ातिर' ये है बाज़ी-ए-दिल, इसमें जीत से मात भली
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Labels: 'ख़ातिर' ग़ज़नवी, मेहदी हसन
Friday, March 27, 2009
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना
ख़ान साहेब मेहदी हसन ने अपना शागिर्द-ए-अव्वल माना था परवेज़ मेहदी को.
अगस्त २००५ को इस गायक का इन्तकाल हो गया फ़कत अठ्ठावन की उम्र में. उनके वालिद जनाब बशीर हुसैन ख़ुद एक अच्छे क्लासिकल वोकलिस्ट थे और बचपन से ही उन्होंने परवेज़ को संगीत सिखाया. बाद में लम्बे अर्से तक मेहदी हसन साहेब की शागिर्दी में उन्होंने ग़ज़ल गायन की बारीकियां सीखीं. परवेज़ मेहदी नाम भी मेहदी हसन ख़ान साहेब का दिया हुआ था. इन का असली नाम परवेज़ अख़्तर था. उस्ताद अहमद क़ुरैशी से इन्होंने सितार की भी तालीम ली थी.
परवेज़ मेहदी सुना रहे हैं मुनीर नियाज़ी साहब की ग़ज़ल. इसे अर्सा पहले ग़ुलाम अली ने भी गाया था.
आज़ादी के बाद की पाकिस्तानी उर्दू शायरी में मुनीर नियाज़ी (१९२८-२००७) को फैज़ अहमद फैज़ और नून मीम राशिद के बाद का सबसे बड़ा शायर माना जाता है. यह शायर ताज़िन्दगी अपनी तनहाई से ऑबसेस्ड रहा और एक जगह कहता है:
इतनी आसाँ ज़िंदगी को इतना मुश्किल कर लिया
जो उठा सकते न थे वह ग़म भी शामिल कर लिया
फ़िलहाल ग़ज़ल सुनिये.
बेचैन बहुत फिरना, घबराए हुए रहना
एक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना
छलकाए हुए रखना ख़ुशबू-लब-ए-लाली की
इक बाग़ सा साथ अपने महकाए हुए रहना
इस हुस्न का शेवा है, जब इश्क नज़र आए
परदे में चले जाना, शर्माए हुए रहना
इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से
इक चांद सा आंखों में चमकाए हुए रहना
आदत ही बना ली है, तुमने तो मुनीर अपनी
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना
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Posted by Ashok Pande at 1:48 PM 10 comments
Labels: परवेज़ मेहदी, मुनीर नियाजी़