Thursday, April 14, 2011

इक न इक ज़ुल्मत से जब बाबस्ता रहना है तो 'जोश'


जोश मलीहाबादी साहब की प्रख्यात ग़ज़ल एक बार पुनः उस्ताद मेहदी हसन की आवाज़ में -



फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्र-ए-खूबां क्यूँ न हों
ख़ाक होना है तो ख़ाक-ए-कू-ए-जाना क्यूँ न हों

जीस्त है जब मुस्तकिल आवारागर्दी ही का नाम,
अक्ल वालों फिर तवाफ़-ए-कू-ए-जाना क्यूँ न हों

इक न इक रीफत के आगे सजदा लाजिम है तो फिर
आदमी महव-ए-सजूद-ए-सिर-ए-खूबां क्यूँ न हों

इक न इक ज़ुल्मत से जब बाबस्ता रहना है तो 'जोश'
जिन्दगी पर साया-ए-जुल्फ-ए-परीशां क्यूँ न हों

2 comments:

daanish said...

ऐसी दुर्लभ प्रस्तुति के लिए
आभार ...... !

बाबुषा said...

कुछ मुश्किल शब्दों के अर्थ भी दे दिए जाएं नीचे ..तो मेरे जैसे लोग पूरा मज़ा ले पाएंगे !