Thursday, March 31, 2011

वो ही एक ख़ामोश नग़मा है शकील जान-ए-हस्ती

शकील बदायूंनी साहेब का क्या परिचय दिया जाए. फ़िलहाल उनकी एक शानदार ग़ज़ल तलत महमूद की रेशम आवाज़ में -




ग़म-ए-आशिकी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुंचे
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुंचे

मैं नज़र पी रहा था तो ये दिल ने बददुआ दी
तेरा हाथ ज़िन्दगी भर कभी जाम तक न पहुंचे

ये अदा-ए-बेनियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
मग़र ऐसी बेरुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुंचे

वो ही एक ख़ामोश नग़मा है शकील जान-ए-हस्ती
जो ज़ुबान तक न आए जो कलाम तक न पहुंचे

3 comments:

daanish said...

शकील साहब की इस ग़ज़ल को
तलत साहब की आवाज़ में पहले भी सुना है
और आज भी
इक नई ताज़गी का एहसास हुआ है ...

आपका शुक्रिया .

इस्मत ज़ैदी said...

ये अदा-ए-बेनियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
मग़र ऐसी बेरुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुंचे

क्या बात है !!!
और तलत साहब की आवाज़ में तो ख़ूबसूरती में एज़ाफ़ा ही हुआ

EHSAS MERE said...

talat saahab ki makhmali awaaz ka jaadu aaj bhi barkarar hai.