Tuesday, September 30, 2008

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है


उस्ताद मेहंदी हसन को क्या कहेंगे आप ? एक गुलूकार ? बस ! मैं कहना चाहूँगा ग़ज़ल का एक ऐसा मेयार जहाँ पहुँचना नामुमकिन ही है. वे ग़ज़ल गायकी का एक युग है.गरज़ कि उनके बाद सब पीछे छूटा सा लगता है. शायरी,मूसीक़ी,गायकी. सब प्लास्टिक के फूल लगते हैं ....सजावटी से. न ख़ालिस महक , न उजले रंग.कुछ मित्र कहते हैं मैं बात को अतिरंजित करता हूँ...तो ठीक है बता दीजिये उसी दौर का ऐसा बेजोड़ गायक जो मेहंदी हसन साहब के पाये का हो. अब इसी ग़ज़ल को लीजिये...कितने गुलूकारों ने आज़माया है इसे लेकिन ख़ाँ साहब के गाये का असर है कि मिटने का नाम ही नहीं लेता.तक़रीबन तीन दिन ख़ाकसार को मेहंदी हसन साहब की ख़िदमत का मौक़ा मिला था. हाय ! क्या लम्हे थे वो. कैसी बेसाख़्ता सादगी, मर जाने को जी चाहे.राजस्थानी में बतियाते रहे थे हम. गाने के बारे में,रियाज़ के मामले में,शायरी और शायरों के मामले में.अहमद फ़राज़ और फ़ैज़ को कितना चाहते हैं ख़ाँ साहब क्या बताऊँ.कहने लगे इन दोनो शोअरा की ग़ज़ल पढ़ते ही ऐसा लगता है कि झट इन्हें किसी मुकम्मिल धुन में बांध दूँ.

बातचीत का अंदाज़ वैसा ही सॉफ़्ट जो गाने में सुनाई देता है.क्या कहिये इस अंदाज़ को कि गाना भी बनावटी नहीं और बोलना भी .चिकन का कुर्ता पहना हुआ है , होंठ पान से लाल हुए जाते हैं,उंगलियों में सिगरेट दबी हुई है और बेतकल्लुफ़ी से होटल के कमरे में बिस्तर पर लेटे हैं.पन्द्रह से ज़्यादा बरस का समय हो गया ; आज जब याद किया जाता हूँ तो लगता है उनसे अभी भी उसी होटल में रूबरू हूँ.यही होता है अज़ीम शख़्सीयतों का जादू. कौन सी ग़ज़ल अच्छी नहीं लगती आपको ?तो बोले जिसमें सब कुछ उघाड़ कर कह दिया हो.बेटे ग़ज़ल की सबसे बड़ी ताक़त है उसका सस्पैंस.जब एक मिसरा पढ़ दिया तो दूसरा क्या होगा ये जानने के लिये दिल मचल मचल जाए सामइन का , समझ लो हिट हो गई वह ग़ज़ल .कैसे तय करते हैं कि फ़लाँ ग़ज़ल लेना है या कैसे चुनते हैं आप कि ये ग़ज़ल आपके गले के माफ़िक रहेगी ...तो बोले एक ग़ज़ल को कम से कम चार पाँच रागों में बांध देखता हूँ....सब जगह माकूल बैठी तो लगता है ये है मेरे काम की. और दूसरी बात ये कि अंदाज़ेबयाँ जुदा होना ज़रूरी है शायर का. कितना अलग एंगल ले पाता है कोई शायर अपनी बात में वह मेरे लिये बहुत अहमियत रखता है.शायर कितना नामचीन है ये ज़रूरी नहीं मेरे लिये...अल्फ़ाज़ों की सादगी और उम्दा कहन ज़रूरी है.

वादा किया था अशोक भाई से कभी कि यादों में क़ैद मेहंदी हसन साहब से उस मुलाक़ात को याद कर कर के लिखता जाऊंगा....न जाने क्यूं पत्ता पत्ता बूटा बूटा सुनते और आपको सुनाने के लिये मन बनाते बनाते लिखने का मन बन गया.आइये अब ग़ज़ल सुनते हैं क्योंकि मेरी बात तो ख़ाँ साहब के गाने जितनी सुरीली नहीं न!




पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

चारागरी बीमारि-ए-दिल की रस्मे-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वरना दिलबर-ए-नादां भी इस दर्द का चारा जाने है

मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत, एक से वाक़िफ़ इनमें नहीं
और तो सब कुछ तंज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है

-मीर तक़ी 'मीर'

चारागरी: चिकित्सा
रस्मे-ए-शहर-ए-हुस्न: सौन्दर्य के नगर की परम्परा
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत: प्यार, मोहब्बत, मौज मज़े आदि
तंज़-ओ-कनाया: व्यंग्य और पहेली
रम्ज़-ओ-इशारा: रहस्य और संकेत

Monday, September 29, 2008

दिल की बात कही नहीं जाती ...: "मीर" ... "बेग़म अख्तर"

आज एक बार फिर "बेग़म अख्तर" ....

और "मीर" ............

क्या करूं .. न अख्तरी बाई का कोई जवाब है न मीर का ... चचा ग़ालिब ही जब कह गए :

"रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था"







दिल की बात कही नहीं जाती चुप के रहना ठाना है
हाल अगर है ऐसा ही तो जी से जाना जाना है


सुर्ख कभू है आँसू हो के ज़र्द कभू है मुंह मेरा
क्या क्या रंग मुहब्बत के हैं ये भी एक ज़माना है


फुर्सत है याँ कम रहने की बात नहीं कुछ कहने की
आँखें खोल के कान जो खोलो, बज्म-ए-जहाँ अफ़साना है


तेग़ तले ही उस के क्यों ना गर्दन डाल के जा बैठें
सर तो आख़िरकार हमें भी ख़ाक की ओर झुकाना है

Sunday, September 28, 2008

रातें थीं चाँदनी जोबन पे थी बहार....हाजी वली मोहम्मद


कुछ आवाज़ों की घड़ावन को सुनकर अल्लाताला को शुक्रिया अदा करने को जी चाहता है.
अब ज़रा ये आवाज़ सुनिये ,कैसा खरज भरा स्वर है और कितनी सादा कहन.
सुख़नसाज़ पर आज तशरीफ़ लाए हैं हबीब वली मोहम्मद साहब.इस नज़्म के ज़रिये
कैसी सुरीली तरन्नुम छिड़ी है आज सुख़नसाज़ पर ज़रा आप भी मज़ा लीजिये न.
कहना सिर्फ़ इतना सा है कि हबीब वली मोहम्मद साहब सादा गायकी का दूसरा
नाम है.उनके घराने में सुरों के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ नहीं है.लफ़्ज़ों की सफ़ाई
और कम्पोज़िशन के वज़न पर क़ायम रहना तो कोई इस गुलूकार से सीखे.

अशोक भाई क्या आप सहमत होंगे कि जब शायरी और मूसीक़ी का जादू
सर चढ़ कर बोल रहा हो तो अपनी वाचालता विराम दे देना चाहिये..ग़रज़ कि
जब गायकी बोल रही हो तो तमाम दीगर तब्सिरे बेसुरे मालूम होते है;
क्या कहते हैं आप ?


Saturday, September 27, 2008

कौन कहता है तुझे मैं ने भुला रखा है .........

"अमीर" अब हिचकियाँ आने लगीं हैं
कहीं मैं याद फ़रमाया गया हूँ ......"



दोस्तों कोई भूमिका नहीं ... सिवा इस के कि बहुत देर से ये आवाज़ सुन रहा हूँ और किसी और जहान में हूँ.

कुछ तो इस आवाज़ का नशा है ..... कुछ इस ग़ज़ल का कमाल ........ और कुछ मेरी फ़ितरत !

पता नहीं गायकी में क्या ख़ूबी है .. लेकिन असर इस से भी ज़्यादा क्या होता होगा ?







कौन कहता है तुझे मैं ने भुला रखा है
तेरी यादों को कलेजे से लगा रखा है


लब पे आहें भी नहीं आँख में आँसू भी नहीं
दिल में हर दाग़ मुहब्बत का छुपा रखा है


तूने जो दिल के अंधेरे में जलाया था कभी
वो दिया आज भी सीने में जला रखा है


देख जा आ के महकते हुए ज़ख्मों को बहार
मैं ने अब तक तेरे गुलशन को सजा रखा है

Thursday, September 25, 2008

क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार

भारत के आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह 'ज़फ़र' की यह ग़ज़ल मेहदी हसन साहब की चुनिन्दा ग़ज़लों के हर प्रीमियम संस्करण की शान बनती रही है. आलोचकगण कई बार इसमें राजनैतिक नैराश्य और आसन्न पराजय से त्रस्त ज़फ़र की मनःस्थिति तक पहुंचने का प्रयास करते रहे हैं.

यह अकारण नहीं था क्योंकि कुछ ही सालों बाद अंग्रेज़ों ने ज़फ़र को वतनबदर करते हुए रंगून की जेल में भेज दिया. कूचः-ए-यार में दो गज़ ज़मीं न मिल सकने को अभिशप्त रहे इस बादशाह-शायर की कविता को उसकी समग्रता में समझने की बेहद ईमानदार कोशिश आप को मेहदी हसन साहब की आवाज़ में सुनने को मिलती है. इस बात को सुख़नसाज़ पर बार-बार अंडरलाइन किया गया है कि इस उस्ताद गायक के भीतर कविता और शब्दों के प्रति जो सम्मान है, वह अभूतपूर्व तो है ही, साहित्य-संगीत के पाठकों के लिए बहुमूल्य भी है.




बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी

उन की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
के तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी

चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी

क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तेरी हूर-ए-शमाइल कभी ऐसी तो न थी

Tuesday, September 23, 2008

किसी ने पूछा कि बात क्या है, तो दुख हंसी में बदल गए हैं

उस्ताद ख़ान साहेब मेहदी हसन के स्वर में सुनें एक और फ़िल्मी गीत:



कहा जो मरने को मर गए हम, कहा जो जीने को जी उठे हम
अब और क्या चाहता है ज़ालिम, तेरे इशारों पर चल रहे हम

किसी से कुछ भी कहा नहीं है, न जाने कैसे ख़बर हुई है
जो दर्द सीने में पल रहे थे वो गीत बन के मचल रहे हैं

न आये लब पे तेरी कहानी, तबाह कर दी ये ज़िन्दगानी
किसी ने पूछा कि बात क्या है, तो दुख हंसी में बदल गए हैं

ये रात जाने कटेगी कैसे, ये प्यास जाने बुझेगी कैसे
कहीं पे रोशन वफ़ा की शम्में, कहीं पे परवाने जल रहे हैं

Monday, September 22, 2008

हमसे अच्छे पवन चकोरे, जो तेरे बालों से खेलें

मेहदी हसन साहब का एक ये मूड भी देखिये. इस रंग के गीत भी खां साहब के यहां इफ़रात में पाये जाते हैं.

इस गीत को पेश करता हुआ मैं अपनी एक गुज़ारिश भी आप के सामने रखता हूं - अगर आप बहुत कलावादी या शुद्धतावादी हैं तो कृपा करें और इस गीत को न सुनें, लेकिन मेहदी हसन को मोहब्बत करते हैं तो पांच मिनट ज़रूर दें. सुनिये "ओ मेरे सांवरे सलोने मेहबूबा"




*आज सुख़नसाज़ के वरिष्ठतम साजिन्दे संजय पटेल का जन्मदिन भी है. यह मीठा गीत में उन्हीं की नज़्र करता हूं.

Sunday, September 21, 2008

दुनियाँ के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद .... : "जिगर"

"जिगर" मुरादाबादी की एक ग़ज़ल .......

अभी अभी कहीं से वापस घर आया और ये सुना .... लगा कि पोस्ट करने में कोई बुराई नहीं ... ग़ज़ल मुझे बहुत पसंद है ............ और आवाज़ के बारे में कुछ कहना ज़रा अजीब सा लगता है मुझे ... जो संगीत के जानकार हैं वो ही कहा करें ......... मैं तो बस सुन के जीता हूँ ........

बस एक बात कहनी है ... ग़ज़ल का एक शेर आख़िर में पेश है जो इस version में नहीं है ..


"जिगर" मुरादाबादी
बेग़म अख्तर







दुनियाँ के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद


मैं शिक़वा ब लब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद कि मेरे भूलने वाले ने किया याद


जब कोई हसीं होता है सरगर्म-ए-नवाज़िश
उस वक्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद


मुद्दत हुई एक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तेरे दिल के धड़कने की सदा याद


मैं तर्क़-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यों आ गई ऐसे में तेरी लग्जिश-ए-पा याद



और ये शेर :


क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद

Friday, September 19, 2008

गायकी की पूर्णता क्या होती है ज़रा मेहंदी हसन साहब से सुनिये


अशोक भाई ने सुख़नसाज़ की जाजम क्या जमा दी है , जी चाहता है हर दिन मेहंदी ह्सन साहब की तारीफ़ में कसीदे गढ़ते रहें.जनाब क्या करें ख़ाँ साहब की गायकी है ही कुछ ऐसी कि जो कुछ अभी तक गा दिया गया है वह वह पुराना पड़ जाता है.जो जो सुन रखा है,याद से ओझल हो जाता है.आज बहुत थोड़े में अपनी बात ख़त्म कर रहा हूँ और आपको मदू कर रहा हूँ कि आइये हुज़ूर आवाज़ के इस जश्न में शामिल हो जाइये.
यहाँ बस इतना साफ़ कर देना चाहता हूँ कि उस्ताद जी ने यहाँ ग़ज़ल गायकी का रंग तो उड़ेला ही है लेकिन बार बार वे ये भी बताते जा रहे हैं कि क्लासिकल मौसीक़ी का आसरा क्या होता है. गायकी में पूर्णता के पर्याय बन गए हैं यहाँ मेहंदी हसन साहब.एक बात और अर्ज़ कर दूँ ,शायरी के साथ मौसीक़ी के जो उजले वर्क़ यहाँ मौजूद हैं , कुछ उनका ज़्यादा लुत्फ़ लेने की कोशिश कीजै......सौदा बुरा नहीं है


Thursday, September 18, 2008

तुझको मंज़िल पे पहुंचने का है दावा हमदम, मुझको अन्जाम नज़र आता है आग़ाज़ अभी

उस्ताद मेहदी हसन ख़ां साहब की एक बहुत आलीशान, बहुत अलहदा सी ग़ज़ल प्रस्तुत है:



तुझको आते ही नहीं छुपने के अन्दाज़ अभी
मेरे सीने में है लरज़ां तेरी आवाज़ अभी

उसने देखा भी नहीं दर्द का आग़ाज़ अभी
इश्क़ को अपनी तमन्ना पे है नाज़ अभी

तुझको मंज़िल पे पहुंचने का है दावा हमदम
मुझको अन्जाम नज़र आता है आग़ाज़ अभी

किस क़दर गो़श बर आवाज़ है ख़ामोशि-ए-शब
कोई ला ला के है फ़रियाद का दरबाज़ अभी

मेरे चेहरे की हंसी, रंग शिकस्ता मेरा
तेरे अश्कों में तबस्सुम का है अन्दाज़ अभी

Sunday, September 14, 2008

बेगम अख़्तर सुना रहीं हैं ये गुजराती ग़ज़ल


सुख़नसाज़ पर पहले एक बार मोहम्मद रफ़ी साहब की गुजराती ग़ज़ल लगाई थी.आज हाथ आ गई अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी यानी बेगम अख़्तर की ये गुजराती ग़ज़ल. मतला मुलाहिज़ा फ़रमाएँ.

में तजी तारी तमन्ना तेनो आ अंजाम छे
के हवे साचेज लागे छे के तारू काम छे



अब मज़ा ये देखिये की पूरी ग़ज़ल सुनते कहीं लगता नहीं कि भाषा कहीं आड़े आ रही है. हमारे मीत भाई जब तब कहते हैं कि मुझे राग-रागिनी समझ नहीं आ रही फ़िर भी बस सुन रहा हूँ तो बात बिलकुछ ठीक जान पड़ती है. सुर के बावरे कहाँ भाषा और रागदारी के प्रपंच में पड़ते हैं. बस एक अहसास है मौसिक़ी का उसे पिये जाइये. ये सुनना भी एक तरह की मस्ती है जैसे बेगम मक्ते में कहती है कि मेरी इस इस मजबूर मस्ती का नशा उतर गया है और भी कह रहे हैं की मुझे आराम आ गया है.
ग़ौर फ़रमाएँ खुदा और जिन्दगी कह गईं हैं बेगम.तो क्या तलफ़्फ़ुज़ नहीं जानतीं वे ?
नहीं हुज़ूर वे लोकल डायलेक्ट (बोली)को निभाने का हुनर रखतीं है सो यहाँ जैसा गुजराती में बोला जाएगा वैसा ही गाया है बेगम अख़्तर ने.

बेगम अख़्तर यानी सुरीली दुनिया की परी.जिनकी आवाज़ में आकर सारी शायरी,दादरे,ठुमरियाँ एक अजीब क़िस्म की पैरहन ओढ़ लेती है. कैसे कमाल के काम कर गईं हैं ये महान रूहें.सुनो रे बेसुरेपन को बेचने वालों...सुनो क्या गा गईं हैं अख़्तरी बाई.



इस प्लेयर पर भी बज रही है ये ग़ज़ल:
Boomp3.com

Saturday, September 13, 2008

बेसबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना








आज पेश है एक ग़ज़ल ग़ालिब की..... आवाज़ "ग़ज़लों की मलिका' बेगम अख्तर की :


ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना


ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रकीब आख़िर था जो राजदां अपना

मय वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ए-गै़र में यारब !
आज ही हुआ मंज़ूर, उन को इम्तेहाँ अपना

मंज़र एक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से उधर होता, काश कि मकाँ अपना

हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना



Monday, September 8, 2008

तुम्हारे बाद किसी रात की सहर न हुई

मेहदी हसन साहब की एक प्रसिद्ध फ़िल्मी कम्पोज़ीशन प्रस्तुत है:



ख़ुदा करे कि मोहब्बत में ये मक़ाम आये
किसी का नाम लूं लब पे तुम्हारा नाम आए

कुछ इस तरह से जिए ज़िन्दगी बसर न हुई
तुम्हारे बाद किसी रात की सहर न हुई

सहर नज़र से मिले, ज़ुल्फ़ ले के शाम आए
किसी का नाम लूं लब पे तुम्हारा नाम आए

ख़ुद अपने घर में वो मेहमान बन के आए हैं
सितम तो देखिए अनजान बन के आए हैं

हमारे दिल की तड़प आज कुछ तो काम आए
किसी का नाम लूं लब पे तुम्हारा नाम आए

वही है साज़ वही गीत वही मंज़र
हरेक चीज़ वही है नहीं हो तुम वो मगर

उसी तरह से निगाहें उठें सलाम आए
किसी का नाम लूं लब पे तुम्हारा नाम आए

Saturday, September 6, 2008

तरसत जियरा हमार नैहर में ....

दोस्तो मुझे बस एक बात मालूम है इस पोस्ट के बारे में : ये आवाज़ शोभा गुर्टू की है.

इस लिए कुछ कहूँगा नहीं, मैं इस क़ाबिल ही नहीं. मैं पहले ही अर्ज़ कर चुका हूँ कि संगीत का इल्म मुझे रत्ती भर नहीं. बस नशा है .... इस के बिना जिया नहीं जाता ....

लेकिन क्या है ये जो छोड़ता नहीं मुझे ....




Tuesday, September 2, 2008

रफ़ी साहब बता रहे है-कितनी राहत है दिल टूट जाने के बाद


मोहम्मद रफ़ी फ़िल्मी गीतों के अग्रणी गायक न होते तो क्या होते.शर्तिया कह सकता हूँ किसी घराने के बड़े उस्ताद होते या बेगम अख़्तर,तलत मेहमूद,मेहंदी हसन और जगजीतसिंह की बलन के ग़ज़ल गायक होते.भरोसा न हो तो मुलाहिज़ा फ़रमाइये ये ग़ज़ल .क्या तो सुरों की परवाज़ है और क्या सार-सम्हाल की है शायरी की.रफ़ी साहब ने इन रचनाओं को तब प्रायवेट एलबम्स की शक़्ल में रेकॉर्ड किया था जब किशोरकुमार नाम का सुनामी राजेश खन्ना नाम के सुपर स्टार को गढ़ रहा था.रफ़ी साहब ने इस समय का बहुत रचनात्मक उपयोग किया. स्टेज शोज़ किये,भजन रेकॉर्ड किये और रेकॉर्ड की चंद बेहतरीन ग़ज़लें.हम कानसेन उपकृत हुए क्योंकि दिल को सुकून देने वाली आवाज़ हमारे कलेक्शन्स को सुरीला बनाती रही.ऐसी कम्पोज़िशन्स को गा गा कर न जाने कितने गुलूकारों ने अपनी रोज़ी-रोटी कमाई है.अहसान आपका मोहम्मद रफ़ी साहब आपका हम सब पर.और हाँ इस ग़ज़ल को सुनते हुए ताज अहमद ख़ान साहब के कम्पोज़िशन की भी दाद दीजिये,किस ख़ूबसूरती से उन्होंने सितार और सारंगी का इस्तेमाल किया है...हर शेर पर वाह वाह कीजिये हुज़ूर..रफ़ी साहब जो गा रहे हैं.

Monday, September 1, 2008

एक आवारा सी आवाज़

इस आवाज़ का असर मुझ पर तो कुछ अजब सा होता है ..... आप पर ?

"शब की तन्हाई में इक बार सुन के देखा था
उस की आवाज़ का असर वो था, कि अब तक है..."