Sunday, November 9, 2008

अपना साया भी हमसे जुदा हो गया


उस्ताद मेहंदी हसन साहब की आवाज़ में ये नग़मा रेडियो के सुनहरी दौर की याद ताज़ा कर देता है. ये भी याद दिलाता है कि धुनें किस क़दर आसान हुआ करती थी; आर्केस्ट्रा के साज़ कितने सुरीले होते थे. इलेक्ट्रॉनिक बाजों का नामोनिशान नहीं था. सारंगी,वॉयलिन,बाँसुरी,सितार और तबले में पूरा समाँ बंध जाता था.हर टेक-रीटेक को वैसा ही दोहराना होता था जैसा म्युज़िक डायरेक्टर एक बार कम्पोज़ कर देता था.सुगम संगीत विधा की पहली ज़रूरत यानी शब्द की सफ़ाई को सबसे ज़्यादा तवज्जो दी जाती थी. लफ़्ज़ को बरतना उस्ताद जी का ख़ास हुनर रहा है. जब शब्द के मानी दिल में उतरने लगे तो उस्ताद अपने अनमोल स्वर से भावों को ऐसा उकेर देते हैं कि शायर की बात सुनने वाले के कलेजे में उतर आती है.मुख़्तसर सी ये रचना इस बात की तसदीक कर रही है.

7 comments:

Alpana Verma said...

dur hain majilen --benishan rastey....bahut hi khubsurat ghazal aur bemisaal gayaki..

[take -retake mein bhi gayaki mein gaane ki feel kaisey bani rahti hogi...taAjuub hai!.
shayad yahi in legend singers ki gayaki ka kamaal hai...

दिलीप कवठेकर said...

खुश-अदा कलमकश , खुश आमदीद !!

siddheshwar singh said...

संजय दद्दा , बहुत दिन बाद आये और भुत उम्दा चीज लाए. यह नग्मा पहली बार सुन, मन जुड़ा गया-कान धन्य हुए.

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

बेहद सुंदर है...मेहंदी हसन की बात ही क्या है...

Smart Indian said...

बहुत सुंदर!

विष्णु बैरागी said...

देर से आए लेकिन बहुत दुरुस्‍त आए । आपके आलेख से गजल बेहतर ढंग से समझ आई ।

एस. बी. सिंह said...

देखिए ख़त्म होगा कब ऐ सिलसिला

बहुत खूब.... दुआ है ऐ सिलसिला कभी ख़त्म न हो।