Friday, October 3, 2008

सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को

जनाब अहसान दानिश की ग़ज़ल पेश है ख़ान साहब की अतुलनीय आवाज़ में.:



न सियो होंट, न ख़्वाबों में सदा दो हम को
मस्लेहत का ये तकाज़ा है भुला दो हम को

हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब
हां अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को

शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को

मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
बैठ जाएंगे जहां चाहे बिठा दो हम को

4 comments:

manvinder bhimber said...

hmesha ki traha se khushnuma

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया ।आभार।

महेन said...

पहली बार हो या हज़ारवीं बार, मज़े में कोई कमी नहीं है खां साहब की गायकी में।

एस. बी. सिंह said...

हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब
हां अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को।

वाह क्या बात है ! सुनवाने का शुक्रिया