Tuesday, August 26, 2008

तुम्हें भुलाने में शायद हमें ज़माने लगे-यादों में फ़राज़


शदीद ग़म के और की-बोर्ड पर काँपती उंगलियों से लिखता हूँ कि आलातरीन शायर
अहमद फ़राज़ साहब नहीं रहे. वे अपनी ज़िन्दगी में शायरी का एक ऐसा मरकज़ बन गए थे जहाँ तक पहुँच पाना दीगर लोगों के लिये नामुमकिन सा लगता है. मैंने बार बार लिखा भी है कि रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ , इस एक ग़ज़ल को मैं ग्लोबल ग़ज़ल ही कहता हूँ.फ़राज़ साहब ने मुशायरों में होने वाली राजनीति के चलते स्टेज से हमेशा एक मुसलसल दूरी बनाए रखी. जैसा कि होना चाहिये अदब की दुनिया के अलावा समाज और इंसानियत के हक़ में शायर और अदीब खड़े नज़र आने चाहिये सो फ़राज़ साहब हमेशा कमिटेड रहे. ज़ाहिर है सत्ता से उनकी कभी नहीं बनी.भारत-पाकिस्तान की एकता और तहज़ीब के हवाले से अमन और भाईचारे की ख़िदमत उनकी ज़िन्दगी के उसूलों में शुमार रहा. बिला शक कहा जा सकता है कि फ़राज़ साहब के परिदृश्य पर लोकप्रिय होने के बाद ग़ज़ल को एक नया मेयार मिला. मौसीक़ी की दुनिया ने हमेशा उनकी ग़ज़लों का ख़ैरमक्दम किया और जिस तरह की मुहब्बत और बेक़रारी उनके कलाम के लिये देखी जाती रही वह किसी शायर को नसीब से ही मिलती है.

अहमद फ़राज़ साहब की ही एक ग़ज़ल से इस अज़ीम शायर को सुख़नसाज़ की
भावपूर्ण श्रध्दांजलि..

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

दिल धड़कता नहीं तपकता है
कल जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इस मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे


कोहकन हो कि क़ैस हो कि फ़राज़
सब में इस शख़्स ही मिला है मुझे


(आबला:छाला/तपकना:जब शरीर कि किसी हिस्से में दर्द हो और वो दर्द दिल धड़कने से भी दुखे/कोहकन:फ़रहाद जिसने शीरीं के लिये पहाड़ काटा था)

9 comments:

महेन said...

बंधु, ये तो बहुत बुरी ख़बर सुनाई।

travel30 said...

Ache log hamesha jaldi chale jate hai

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Udan Tashtari said...

शायर अहमद फ़राज़ साहेब को श्रृद्धांजलि!!

डॉ .अनुराग said...

जी हाँ यकीन तो नही है ...पर सच यही है....शाम को न्यूज़ चैनल में ये मनहूस ख़बर देखी......

Dr. Chandra Kumar Jain said...

मेरी विनम्र श्रद्धांजलि
=================
चन्द्रकुमार

विनय (Viney) said...

शोला था जल बुझा हूँ, हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ, सदाएं मुझे न दो|

मगर फ़राज़ तुम बुझने वाले शोलों में से नही हो| और जब कोई शाइरी में इंसानियत ढूंढेगा तो तुम्हें सदाएं भी बहुत दी जाएँगी|

siddheshwar singh said...

फ़राज़ साहब को श्रद्धांजलि ! नमन!!

सतपाल ख़याल said...

us azeem shaai'r ko salaam.

दिलीप कवठेकर said...

क्या आलातरीन श्रद्धांजली पेश की है, उतने ही शायराना लफ़्ज़ो में , दिल को छू लेती हुई यह श्रद्धांजली.

फ़राज़ साहब की कई गज़लें सुनी और गुनगुनाईं भी, जिसके मायनों को समझ कर रूह के अंदर बेचैनी की हद तक उतारने का उपक्रम कर चुका हूं.

यहां तक कि एक हिमाकत भी, उनके शेरों में अपना भी एक शेर जोडने की..

ज़ख्में जिगर सीया है, सांसों के तार से..
हिचकी है आखरी अब , दवायें मुझे ना दो..
मैं कब का जा चुका हूं , सदायें मुझे ना दो..
शोला था जल बुझा हूं , हवायें मुझे ना दो.

This is not plagiarism, also not an attempt to scale the Himaliyan Heights of Shaayar, but a liliputean effort to attach our feelings of Love and respect to him.