Wednesday, August 6, 2008

तुम बादशाह-ए-हुस्न हो, हुस्न-ए-जहान हो

बुलबुल ने गुल से
गुल ने बहारों से कह दिया
इक चौदहवीं के चांद ने
तारों से कह दिया

शब्दों को तक़रीबन सहलाते हुए उस्ताद यह बहुत ही मधुर, बहुत ही मीठा गीत शुरू करते हैं. गीत पुराना है और ख़ां साहब की आवाज़ में है वही कविता और गायकी को निभाने की ज़िम्मेदार मिठास:



दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं
इक दिलरुबा है दिल में जो फूलों से कम नहीं

तुम बादशाह-ए-हुस्न हो, हुस्न-ए-जहान हो
जाने वफ़ा हो और मोहब्बत की शान हो

जलवे तुम्हारे हुस्न के तारों से कम नहीं

(इस में एक पैरा और है लेकिन मेरे संग्रह से में वो वाला वर्ज़न नहीं मिल रहा जहां मेहदी हसन साहब ने इसे भी गाया है:

भूले से मुस्कराओ तो मोती बरस पड़ें
पलकें उठा के देखो तो कलियाँ भी हँस पड़ें
ख़ुश्बू तुम्हारी ज़ुल्फ़ की फूलों से कम नहीं)

9 comments:

शायदा said...

सुन लिया ये भी और वो भी जो हमारे पास है। दोनों में ही वो पैरा नहीं है जिसकी बात आपने की। लेकिन आपके पास भूले से......वाली बात बाद में है हमारे पास पहले है। खै़र शुक्रिया आपका लगातार उम्‍दा चीजें सुनवाते रहने का।

अमिताभ मीत said...

अशोक भाई .... मेरी पोस्ट सुनें ....

Udan Tashtari said...

बेहतरीन...सुनाते रहिये.बहुत आभार.

Nitish Raj said...

अशोक भाई...ये मेरी पसंदीदा गजलों में से एक है
और इसका एक वर्जन तलत अजीज ना भी गाया है जो की फास्ट ट्रैक में है अपनी एल्बम स्टोर्म में। लेकिन ये तो एल्टीमेट है।

Smart Indian said...

इतनी सुंदर ग़ज़ल निकाल कर लाने के लिए शुक्रिया!

Sajeev said...

एक और उन्दा ग़ज़ल, उस्ताद को आदाब

Vineeta Yashsavi said...

पसन्दीदा ग़ज़ल है यह मेरी. आपकी पेशकश का अन्दाज़ भी बेहतरीन है.

siddheshwar singh said...

सचमुच मोती बरस पड़ें!

दिलीप कवठेकर said...

बेहतरीन!!

मैने यह गज़ल भी सुनी थी, नगर वह किसी फ़िल्म के लिये गायी गयी थी, जो शायद आम लोगों के पास हो.

ये वर्शन किसि मेह्फ़िल की शान है, और यह अन्दाज़ बेह्तर है.

...हूरों सेे कम नही