Friday, August 1, 2008

ताज़ा हवा बहार की दिल का मलाल ले गई


ग़ज़ल को सुनने की एक ख़ास वजह शायरी का लुत्फ़ लेना होता है.लेकिन जब ग़ज़ल उस्ताद मेहदी हसन साहब गा रहे हों तब सुनने वाले के कान मौसीक़ी पर आ ठहरते हैं. कई ग़ज़लें हैं जो आप सिर्फ़ ख़ाँ साहब की गायकी की भव्यता का दीदार करने के लिये सुनते हैं. यहाँ आज पेश हो रही ग़ज़ल उस ज़माने का कारनामा है जब संगीत में सिंथेटिक जैसा शब्द सुनाई नहीं देता था. मैं यहाँ ये साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मुझे विदेशी वाद्यों से गुरेज़ नहीं , उन्हें जिस तरह से इस्तेमाल किया जाता है उससे है. ख़ाँ साहब के साहबज़ादे कामरान भाई ने कई कंसर्ट्स में क्या ख़ूब सिंथेसाइज़र बजाया है. लेकिन जो पेशकश मैं आज लाया हूँ वह सुख़नसाज़ के मूड और तासीर पर फ़बती है.

राग जैजैवंती में सुरभित ये ग़ज़ल रेडियो के सुनहरी दौर का पता देती है. रेडियो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का संगीत इदारा एक ज़माने में करिश्माई चीज़ों को गढ़ता रहा है. सारे कम्पोज़िशन्स हारमोनियम,बाँसुरी,वॉयलिन,सितार और सारंगी बस इन चार-पाँच वाद्यों के इर्द-गिर्द सारा संगीत सिमटे होते हैं. इस ग़ज़ल में भी यही सब कुछ है. सधा हुआ...शालीन और गरिमामय.रिद्म में सुनें तो तबला एक झील के पानी मानिंद ठहरा हुआ है और उसके पानी में कोई एक सुनिश्चित अंतराल पर कंकर डाल रहा है.

मेहदी हसन के पाये का आर्टिस्ट गले से क्या नहीं कर सकता. उनकी आवाज़ ने जो मेयार देखे हैं कोई देख पाया है क्या. पूरी एक रिवायत पोशीदा है उनकी स्वर-यात्रा में. लेकिन देखिये, सुनिये और समझिये तो ख़ाँ साहब कैसे मासूम विद्यार्थी बन बैठे गा रहे हैं...क्योंकि यहाँ कम्पोज़िशन किसी और की है. आज़ादी नहीं है अपनी बात कहने की ...जो संगीत रचना में है (गोया नोटेशन्स पढ़ कर गा रहे हैं जैसे दक्षिण भारत में त्यागराजा को गाय जाता है या बंगाल में रवीन्द्र संगीत को )बस उसे जस का तस उतार रहे हैं ... लेकिन फ़िर भी छोटी छोटी जगह जो मिली है गले की हरक़त के लिये उसमें वे दिखा दे रहे हैं कि यहाँ है मेहंदी हसन...

इस आलेख की हेडलाइन में शायरी के पार की बात का मतलब ये है कि बहुत साफ़गोई से कहना चाहूँगा कि एक तो मतले तो काफ़ी गहरा अर्थे लिये हैं लेकिन मौसीक़ी का आसरा कुछ इस बलन का है कि मेहदी हसन साहब दिल में उतर कर रह जाते है.

अंत में एक प्रश्न आपके लिये छोड़ता हूँ...

हम जैसे थोड़े बहुत कानसेनों के लिये इतनी ही जैजैवंती काफ़ी है

सादगी से मेहदी हसन साहब के कंठ से फ़ूट कर हमारे दिल में समाती सी.

हम सब को ग़ज़ल के इस दरवेश का दीवाना बनाती सी.

6 comments:

Ashok Pande said...

बहुत दुर्लभ मोती चुन के लगाया है आज आपने संजय भाई. और संगीत के इस बड़े दरवेश पर आप ने जब-जब कलम चलाई है, मुझ पर तो हर बार कोई न कोई नया अर्थ खुला है ख़ां साहब की गायकी को ले कर.

बहुत बहुत शुक्रिया.

पारुल "पुखराज" said...

kya baat hai ...duubney utraaney jaisaa...araam araam sey bah rahi hai mano....aabhaar sanjay ji...

राकेश खंडेलवाल said...

आभार, इस नायाब प्रस्तुति के लिये

अमिताभ मीत said...

आ हा ! क्या बात है भाई. ग़लत वक़्त पर सुन रहा हूँ .... आज शाम आराम से बैठ के सुनूंगा .... बहरहाल इसी तरह सुनवाते रहिये .... शुक्रिया.

eSwami said...

चिट्ठे की कडी खडकाते वक्त कोई नायाब पेशकश सुनने की उम्मीद तो थी पर ये तो दूसरी दुनिया की चीज़ है - शुक्रिया!

Audiophile के लिये हिंदी/उर्दू शब्द ढूंढ रहा था, "कानसेन" के लिये धन्यवाद - इससे बेहतर शब्द शायद ना मिले.

दिलीप कवठेकर said...

दिली सुकून से गायी गयी इस नायाब प्रस्तुति पर और क्या कहा जा है?

सं्जय भाई की लेखनी से उतरते हर शब्दों में वही पुर्कशिश , वही substance है जिससे हम जैसे कदर्दानों, कानसेनों की दुनिया में तीसरा आयाम जोड देति है. ऎक 3 D Surround Sound का अहसास.

एक तो खांं साहब की लोच्दार ्मखमली आवाज़, उसपे इस गज़ल के शब्द और उस्की अदबी रवायत, तिस पर संजय भाई ै की जेहनी और दिली तौर पर पेश कर्ने की अदायगी, उफ़ तौबा.