Wednesday, July 30, 2008

सहर की आस तो है ज़िन्दगी की आस नहीं

फ़िराक गोरखपुरी साहब का एक शेर मुझे बहुत पसन्द है और इसीलिए मैंने इसे सुख़नसाज़ के साइडबार में स्थाई रूप से लगाया हुआ है:

मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है,
तुझे कुछ भूलता सा जा रहा हूं
ये सन्नाटा है मेरे पांव की चाप
'फ़िराक़' कुछ अपनी आहट पा रहा हूं

ये किसी महबूब शख़्स के लगातार भीतर रहने के बावजूद अपनी खु़द के पांवों की आहट सुन पाने का आत्मघाती हौसला है जो इश्क़ को इश्क बनाता है. दुनिया भर की तमाम कलाओं में न जाने कितनी मरतबा कितने-कितने तरीक़ों से इस शै को भगवान से बड़ा घोषित किया जा चुका है. लेकिन पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन्सान अपनी औक़ात को भूल कर इस सर्वशक्तिमान से भिड़ता जाता है. इस भिड़ंत के निशान हमारी कलाओं में अनमोल धरोहरों की तरह सम्हाले हुए हैं.

छोड़िये ज़्यादा फ़िलॉसॉफ़ी नहीं झाड़ता पर इसी क्रम में फ़ैज़ साहब का एक और शेर जेहन में आ रहा है:


दुनिया ने तेरी याद से बेग़ाना कर दिया
तुझ से भी दिलफ़रेब हैं ग़म रोज़गार के.

और आज देखिए यहां उस्ताद क्या गा रहे हैं:

मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाए
बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं



वो दिलनवाज़ है लेकिन नज़रशनास नहीं
मेरा इलाज मेरे चारागर के पास नहीं

गुज़र रहे हैं अजब मरहलों से दीदः-ओ-दिल
सहर की आस तो है, ज़िन्दगी की आस नहीं

कभी-कभी जो तेरे क़ुर्ब में गुज़ारे थे
अब उन दिनों का तसव्वुर भी मेरे पास नहीं

मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाए
बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं

3 comments:

vipinkizindagi said...

kya kub likha hai

Arvind Mishra said...

गुज़र रहे हैं अजब मरहलों से दीदः-ओ-दिल
सहर की आस तो है, ज़िन्दगी की आस नहीं
इस भूले शेर को याद दिलाने के लिए शुक्रिया /

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया.बहुत आभार.