Tuesday, July 22, 2008

याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद

तब न कविता लिखने की तमीज़ थी न संगीत समझने की. बीस-बाईस की उम्र थी और मीर बाबा का दीवान सिरहाने रख कर सोने का जुनून था. उनके शेर याद हो जाया करते और सोते-जागते भीतर गूंजा करते. कहीं से किसी ने एक कैसेट ला के दे दिया. लगातार-लगातार रिवाइन्ड कर उस में से "आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद" सुनने और आख़िर में आवेश की सी हालत में आ जाने की बहुत ठोस यादें हैं. उसी क्रम में मीर बाबा की आत्मकथा 'ज़िक्र-ए-मीर' से परिचय हुआ. मीर उस में अपनी वसीयत में देखिए क्या लिख गए:

"बेटा, हमारे पास दुनिया के धन-दौलत में से तो कोई चीज़ नहीं है जो आगे चलकर तुम्हारे काम आये, लेकिन हमारी सबसे बड़ी पूंजी, जिस पर हमें गर्व है, क़ानून-ए-ज़बान (भाषा के सिद्धान्त) है, जिस पर हमारा जीवन और मान निर्भर रहा, जिसने हमें अपमान के खड्डे में से निकाल कर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया. इस दौलत के आगे हम विश्व की हुकूमत को भी तुच्छ समझते रहे. तुम को भी अपने तरके (पैतृक सम्पत्ति) में से यही दौलत देते हैं"

बहुत सालों बाद पता लगा कि यह ग़ज़ल, जो मैं आपको सुनवाने जा रहा हूं, दर असल मीर तक़ी मीर की है ही नहीं. अली सरदार ज़ाफ़री के मुताबिक इस ग़ज़ल के शेर लखनऊ के एक शायर अमीर के हैं जबकि मक़्ता संभवतः मौलाना शिबली द्वारा 'शेरुल अजम' में कहीं से ग़ाफ़िल लखनवी या मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस के नाम से नकल किया गया था.

मुझे अपनी इस खुशफ़हमी को बनाए रखना अच्छा लगता है कि बावजूद विद्वानों के अलग विचारों के, मैं इस ग़ज़ल को अब भी मीर तक़ी मीर की ही मानता हूं क्योंकि कहीं न कहीं चेतन-अचेतन में इसी ने मुझे मीर बाबा और उस्ताद मेहदी हसन का मुरीद बनाया था और उनके रास्ते अपार आनन्द के सागर तक पहुंचाया.

उस्ताद मेहदी हसन ख़ां साहब एक बार फिर से:




आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद
न रही दश्त में ख़ाली कोई जा मेरे बाद

चाक करना है इसी ग़म से गिरेबान-ए-कफ़न
कौन खोलेगा तेरे बन्द-ए-कबा तेरे बाद

वो हवाख़्वाह-ए-चमन हूं कि चमन में हर सुब्ह
पहले मैं जाता था और बाद-ए-सबा मेरे बाद

तेज़ रखना सर-ए-हर ख़ार को ऐ दश्त-ए-जुनूं
शायद आ जाए कोई आबला पा मेरे बाद

मुंह पे रख दामन-ए-गुल रोएंगे मुर्ग़ान-ए-चमन
हर रविश ख़ाक उड़ाएगी सबा मेरे बाद

बाद मरने के मेरी क़ब्र पे आया वो 'मीर'
याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद

(सज्जादः नशीं: किसी मस्जिद या मज़ार का प्रबंधन करने वाले की मौत के बाद उसकी गद्दी संभालने वाला, क़ैस: मजनूं, दश्त: जंगल, जा: जगह, चाक करना: फ़ाड़ना, गिरेबान-ए-कफ़न: कफ़न रूपी वस्त्र, बन्द-ए-कबा: वस्त्रों में लगाई जाने वाली गांठें, हवाख़्वाह-ए-चमन: बग़ीचे में हवाख़ोरी करने का शौकीन, सबा: सुबह की समीर, सर-ए-हर ख़ार: हर कांटे की नोक, दश्त-ए-जुनूं: पागलपन का जंगल, आबला: जिसके पैर में छाले पड़े हों, मुर्ग़ान-ए-चमन: उद्यान के पक्षी)

9 comments:

pallavi trivedi said...

ghazal chahe kisi ne bhi likhi ho....hamare liye yahi kaafi hai ki ek bezod krati hai.

अभय तिवारी said...

सज्जादानशीं का मतलब सजदे में झुका नहीं.. उत्तराधिकारी होता है। यानी शायर कह रहा है कि जुनूं में क़ैस मेरा चेला है।

Udan Tashtari said...

हमने तो सुनने का आनन्द लिया, आभार.

Ashok Pande said...

अभय जी

ग़लती सुधारने का शुक्रिया. वाक़ई. बहुत - बहुत शुक्रिया. आगे से ख़याल रखूंगा.

आप का यहां आने का भी धन्यवाद

दिलीप कवठेकर said...

A treat again. Listened this Gazal after 25 years, with lyrics !!

Shamber said...

khidkiyaan khol do ki roshni hawa aaye
mere dil tak teri koi to dua aaye
-Dr Rajesh Shrivastava ShambarBhopal India

Sajeev said...

खूबसूरत ग़ज़ल...

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

Spellbinding.
Fantaubulous.

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

Spellbinding.
Fantaubulous.