Tuesday, July 15, 2008

काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर, कौन छुड़ाए अपना दामन



जनाब अली सिकन्दर उर्फ़ जिगर मुरादाबादी साहब की अविस्मरणीय ग़ज़ल को गा रही हैं बेग़म अख़्तर:



कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन

आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन

रहमत होगी तालिब-ए-इसियाँ
रश्क करेगी पाकी-ए-दामन

काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर
कौन छुड़ाए अपना दामन

3 comments:

Udan Tashtari said...

Aabhar..behtarin prastuti.

pallavi trivedi said...

bahut sundar ghazal...dhanyvaad

अंगूठा छाप said...

अद्भुत!

बहुत ही शानदार...