Monday, June 30, 2008

बेगम अख़्तर : तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है

मलिका–ए–ग़ज़ल बेगम अख़्तर ने ग़ज़ल को ज़िस तरह से अपनी आवाज़ से सँवारा है उससे बेशुमार दर्दी मुतमईन हैं.अब इस वीडियो को ही देखिये जो सुख़नसाज़ की बारादरी में आ पसरा है.किस बेसाख़्ता सादगी से बेगम अख़्तर इस कलाम को गा रहीं हैं.उनकी नाक का बेशक़ीमती हीरा उनकी गायकी के सामने कुछ कम ही दमकता नज़र आ रहा है. हाथ में बाजा लिये निर्विघ्न श्रवणा बेगम अख़्तर से रू-ब-रू होना किसी पावन तीर्थ का दर्शन करने जैसा है. लोग कहते हैं बेगम अख़्तर ग़ज़ल गातीं हैं ... ग़लत कहते हैं ... ग़ज़ल बेगम अख़्तर के गले में आन समाती है और आकर एक ख़ुशबू की मानिंद हमारे दिलो-दिमाग़ पर छा जाती है.

जब वे गा रही होती हैं तो ग़ज़ल उनकी होती है,शायर की नहीं. ये करामात सिर्फ़ उन्हीं के बूते का है. गाते वक़्त उनकी देहभाषा तो देखिये...जैसे ग़ज़ल को अपनी प्यारी सी बच्ची की तरह वे दुलार रहीं हों. बीच में सामईन की तरफ़ देख कर जिस तरह वे मुस्कुराती हैं लगता है पूछ रहीं हों अच्छी लगी न ये बात ...शुक्रिया. जहाँ जहाँ उनकी आवाज़ में पत्ती लगती है (जिसे कुछ दुष्ट लोग आवाज़ का फ़टना भी कहते हैं) समझिये बंदिश का स्वराभिषेक कर दिया बेगम अख़्तर ने.

बस अब अपनी वाचालता को विराम देते हुए एक ख़ास वक्तव्य:

महाराष्ट्र के जाने माने साहित्यकार पु. ल. देशपांडे बेगम अख़्तर के अनन्य मुरीद थे. अपने मित्रों वसंतराव देशपांडे, कुमार गंधर्व और रसिसराज रामू भैया दाते के साथ मिल अक्सर बेगम अख़्तर के रेकॉर्ड चूड़ी वाले बाजे पर सुनते. संघर्ष के दिन थे वे इन सभी के लिये. पु.ल. कहते: "बेगम अख़्तर के रेकॉर्ड्स सुनते वक़्त हमारी तार-तार दरी शहाना कालीन हो जाती और छत पर टंगा कंदील आलीशान झाड़फ़ानूस हो जाता."




तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है

क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है

वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है

वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है

वही है ज़िन्दगी अपनी 'जिगर' ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है

10 comments:

Ashok Pande said...

वल्लाह संजय भाई ... क्या शानदार एन्ट्री ली है आपने सुख़नसाज़ में.

मलिका–ए–ग़ज़ल बेगम अख़्तर का नूर बिखर गया आज तो यहां. शुक्रिया, शुक्रिया!

Neeraj Rohilla said...

संजय भाई,
आज सुबह का आगाज़ इस बेहतरीन गज़ल को सुनने से हुआ है, दिन जुरूर अच्छा जायेगा ।

इसी गज़ल को "कहकशां" टीवी सीरियल में विनोद सहगल ने भी गाया है । इसी से याद आया कि कहकशां के कुछ और गीत भी सुनवाने हैं अपने चिट्ठे पर :)

बहुत आभार,

अमिताभ मीत said...

क्या बात है. वाह ! कोई comment करने के लायक नहीं हूँ फ़िलहाल. अभी मस्त हूँ भाई. बहरहाल बहुत आभार आप का.

siddheshwar singh said...

संजय भाई,

sabase pahale to is prastuti ke lie shukriya.बेगम अख़्तर के बारे में क्या कहे...'शोला सा लपक जाए है आवाज तो देखो'.

मेरी दो गुजारिशें हैं आपसे-

१-बेगम अख्तर के स्वर 'निहुरे-निहुरे बुहारो अंगनवा' हो सके तो यहां या 'जोग लिखी' पर लगा दें.

२-सन १९४० के आसपास कि एक फ़िल्म
है 'रोटी' जिसमें बेगम अख्तर ने अभिनय किया है.यदि इसका कोई गीत मिल सके तो ...
मुझे यकीन है आप इस नाचीज की इल्तिजा पर गौर करेंगे.

इतवारी 'अमर उजाला 'में परसों आपका एक लेख देखा था.अच्छा लगा था.

बाकी सब ठीक.

पारुल "पुखराज" said...

waah!! sanjay bhayi..bahut badhiyaa post...abhaar

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बेहतरीन...
आफ्रीन ..
क्या आवाज़ है ! ..
शुक्रिया शब्द बहुत छोटा है सँजय भाई..

Udan Tashtari said...

वाह वाह!

आप भी एक से एक नायाब आईटम पेश करने में महारथ रखते हैं.

Pratyaksha said...

जहाँ उनकी आवाज़ में पत्ती लगती है ... दम साध कर इंतज़ार करते हैं कि कब आवाज़ में वो लचक आयेगी ..फिर फिर !

स्र की कलम said...

वाह! मज़ा आ गया

स्र की कलम said...

आप का जीन अब ज़ीना बन चला शायद...स्र
वाह! मज़ा आ गया