Friday, June 27, 2008

यूं उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहां से उठता है

दो उस्तादों की एक साथ संगत होती है तो देखिये क्या होता है. शहंशाह-ए-ग़ज़ल मेहदी हसन साहब गा रहे हैं शायरी के ख़ुदा बाबा मीर तक़ी मीर की एक अतिविख्यात रचना.



देख तो दिल के जां से उठता है,
ये धुंआं सा कहां से उठता है

गोर किस दिलजले की है ये फ़लक,
शोला इक सुब्ह यां से उठता है

बैठने कौन दे है फिर उसको
जो तेरे आस्तां से उठता है

यूं उठे आह उस गली से हम,
जैसे कोई जहां से उठता है

(गोर: कब्र, फ़लक: आसमान)

*आज से श्री संजय पटेल भी सुख़नसाज़ से जुड़ गए हैं. संगीत का उनका ज्ञान बड़े-बड़े ग्रंथों और कोशों से अधिक विशद है. अब देखिए आगे आगे क्या-क्या और सुनने को मिलता है आपको यहां.

2 comments:

नीरज गोस्वामी said...

एक जादू का एहसास जगाती है ये रचना...मेहदी साहेब की आवाज लफ्जों का चुनाव और बेहद उम्दा मौसिकी तीनो कमाल का असर पैदा करते हैं...जितनी बार सुनो कम है.
नीरज

शायदा said...

इस रिकॉर्डिंग में आवाज़ ज़रा जवान लग रही है। बाद में इसी ग़ज़ल में हर बार सोज़ और ज्‍़यादा घुलता गया है। इस ग़ज़ल को अक्‍सर सुना है घंटों, खै़र धुंआ-धुंआ कर देने के लिए भी शुक्रिया।