Thursday, April 10, 2008

उस्ताद हामिद अली ख़ान साहब की आवाज़ में मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल

फ़िलहाल मैं इस ब्लॉग पर लगाई गई पिछली ग़ज़लों को दुबारा एक एक कर लगाने का प्रयास करूंगा और समय समय पर नई ग़ज़लें भी.

इसी क्रम में पेश है उस्ताद हामिद अली ख़ान साहब की आवाज़ में मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल 'ग़ुंचा-ए-ना-शिगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यों'


ग़ुंचा-ए-ना-शिगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यों
बोसे को पूछता हूं मैं, मुंह से मुझे बता कि यों

रात के वक़्त मै पिये, साथ रक़ीब को लिये
आये वो यां ख़ुदा करे, पर न करे ख़ुदा कि यों

ग़ैर से रात क्या बनी, यह जो कहा कि देखिये
सामने आन बैठना, और ये देखना कि यों

मुझ से कहा जो यार ने, जाते हैं होश किस तरह
देख के मेरी बेख़ुदी, चलने लगी हवा, कि यों

मैंने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिये ग़ैर से, तिही
सुन के सितम ज़रीफ़ ने मुझको उठा दिया, कि यों

(ग़ुंचा-ए-नाशिगुफ़्ता: अनखिली कली, बोसा: चुम्बन, बज़्म-ए-नाज़: माशूक की महफ़िल, तिही: ख़ाली, सितम ज़रीफ़: जिसके अत्याचार में भी परिहास हो)

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